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122... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण उनमें से एक का अर्थ 'जोड़ना' है और दूसरे का 'मन:समाधि' अथवा 'मन की स्थिरता' है।2 फलित की भाषा में कहा जाये तो योग शब्द का अर्थ सम्बन्ध स्थापित करना तथा मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक स्थिरता प्राप्त करना भी है। इस प्रकार साधन और साध्य दोनों ही रूप में 'योग' शब्द अर्थवान है। प्रस्तुत सन्दर्भ में योग के दोनों अर्थ अभीष्ट एवं ग्राह्य है। उदवहन शब्द में 'उद' उपसर्ग श्रेष्ठता, उच्च, ऊपर, अतिशय, ऊपर उठना आदि अर्थों का वाचक है। इसका अर्थ होता है- उठाये रखना, संभाले रखना, सहारा देना आदि।
सुस्पष्ट है कि अध्यवसायों को अशुभ से हटाकर शुभ में जोड़ना, उन्हें प्रशस्त वृत्ति से संलग्न रखना और अन्तश्चेतना को ऊपर उठाना योगोद्वहन है अथवा चेतन सत्ता की वह प्रवृत्ति जो उसे निरन्तर समाधि मार्ग की ओर उन्मुख करती है, योगोद्वहन कहलाती है। योग के प्रकार
जैन अवधारणा में सूत्र योग के दो प्रकार माने गये हैं- 1. गणियोग और 2. बाहिर योग।
गणियोग- जिस सूत्र का योग करते हुए गणिपद दिया जाता है वह गणि योग कहलाता है, जैसे- भगवतीसूत्र गणीयोग है।
बाहिरयोग- गणियोग के अतिरिक्त शेष सूत्रों के योग बाहिरयोग कहलाते हैं। इन्हें अनुक्रम से आगाढ़ योग और अनागाढ़ योग भी कहते हैं।
आगाढ़ योग- आगाढ़ शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ होता है- 'आ समन्तात गाढ़ः इति आगाढ़' जो चारों ओर से प्रगाढ़, प्रकृष्ट और अनिवार्य है वह आगाढ़ कहलाता है।
प्राकृत हिन्दी कोश में आगाढ़ शब्द के निम्न अर्थ बताए गए हैं- प्रबल, दुःसाध्य, अत्यन्त गाढ़। जो योग अत्यन्त कठिनता के साथ वहन किया जाता है, आगाढ़ योग कहलाता है। जैनाचार्यों के मतानुसार जिन सूत्रों के योग पूर्ण करने के पश्चात ही उससे बाहर निकला जाता है अथवा भगवती आदि कुछ सूत्रों के सम्पूर्ण पाठों को पढ़ लेने के बाद ही अन्य सूत्र योग में प्रवेश होता है वह आगाढ़ योग है। भिक्षु आगम कोश के अनुसार भगवती आदि आगमों के अध्ययनकाल में अध्येता को सघनता से योगवहन करना होता है, इसलिए उसे आगाढ़ योग कहा जाता है। उत्तराध्ययन, आचारांग का सप्तसप्ततिका नामक