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अध्याय-4
योगोद्वहन : एक विमर्श मन, वचन और काया की समस्त चेष्टाओं को संयमित कर, चित्त की एकाग्रता पूर्वक आगम शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना योगोदवहन कहलाता है। जैन पद्धति के अनुसार आयम्बिल आदि तप एवं कायोत्सर्ग-खमासमण-वन्दन आदि क्रियाओं के साथ आचारांग आदि आगम शास्त्रों का अभ्यास करना योगोद्वहन है। इस योग साधना के द्वारा रत्नत्रय की आराधना की जाती है। यह ज्ञानार्जन का श्रेष्ठ एवं उत्तम मार्ग है। इससे वीतराग वाणी को सम्यक प्रकार से आत्मस्थ किया जा सकता है। आगमशास्त्रों में कहा गया है कि मूलागमों का अध्ययन विधिपूर्वक करना चाहिए, विधिपूर्वक ग्रहण किया गया ज्ञान आत्मविशुद्धि का कारण और सिद्धपद की प्राप्ति करवाने में समर्थ बनता है। योगोद्वहन शब्द का अर्थ घटन
योगोद्वहन इस शब्द में दो पदों का संयोग है- योग + उद्वहन। सामान्यत: योग शब्द के अनेक अर्थ हैं, किन्तु जैन विचारणा में मन, वचन एवं काया की प्रवृत्तियों को योग कहा गया है। उद्वहन का अर्थ है- ऊर्ध्व दिशा की ओर गमन अर्थात मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों को ऊर्ध्वमुखी या आत्मोन्मुखी करना योगोद्वहन है।
आचार दिनकर के अनुसार मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को समाधि पूर्वक तप साधना से योजित करना या जोड़ना योग है अथवा आगम शास्त्रों की वाचना ग्रहण करने के लिए गीतार्थ सामाचारी के अनुसार आत्मा को तपश्चरण से जोड़ना योग है तथा आगम ग्रन्थों के अध्ययन हेतु तप, कायोत्सर्ग, कालग्रहण एवं स्वाध्याय प्रस्थापना आदि क्रियाओं को निर्धारित क्रम से करना योगोद्वहन है।
संस्कृत हिन्दी कोश के अनुसार 'योग' शब्द संस्कृत की 'युज्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय जुड़कर बना है। संस्कृत व्याकरण में 'युज्' नाम की दो धातुएँ हैं