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116... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण कर देता है और आनन्द के झूले में झूलने लगता हैं वैसे ही साधक स्वाध्याय रूपी नन्दन वन में पहुँचकर अलौकिक आनन्द का अनुभव करता है। ___ योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने कहा है कि स्वाध्याय से योग की प्राप्ति होती है और योग से स्वाध्याय की साधना होती है। जो साधक स्वाध्याय मूलक योग की सम्यक साधना करता है, वह स्वयं परमात्मा बन जाता है।52 अनुभवी चिन्तकों ने स्वाध्याय को ध्यान के समकक्ष भी बतलाया है। स्वाध्याय में स्व का चिन्तन प्रमुख होता है तो ध्यान में भी ध्याता ध्येय बन जाता है। जब ध्याता किसी अन्य वस्तु का अवलंबन न लेकर स्वयं अपने को ही अपना विषय बनाता है तो वह उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है। इस दृष्टि से स्वाध्याय और ध्यान में कोई अन्तर नहीं है। ध्यान से चित्त एकाग्र होता है तो स्वाध्याय से भी चित्त में एकाग्रता आती है। स्वाध्याय की श्रेष्ठता एवं सर्वोत्कृष्टता का संगान करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने इष्टोपदेश में कहा है कि
जीवोऽन्यः पुद्गलाश्चान्य, इत्यसौ तत्त्व संग्रहः ।
यदन्यदुच्यते किंचित्, सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ।। अर्थात जीव पौद्गलिक शरीर से भिन्न है और पुद्गल जीव से भिन्न है। यही ज्ञान तत्त्व का संग्रह है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसी का विस्तार है। जैन दर्शन में अन्य से स्व की भिन्नता का साक्षात्कार करना इसे भेद विज्ञान कहा गया है। इससे ग्रन्थि भेदन होता है। पर के साथ स्व का बंधन होना ग्रन्थि है। इस ग्रन्थि के भेदन का अनुभव सम्यक ज्ञान है और यही सच्चा स्वाध्याय है।
भेद विज्ञान होने पर जैसे-जैसे पर सम्बन्धों का छेदन होता जाता है वैसेवैसे साधक स्वत: स्वयं में स्थिर हो जाता है। स्व से जुड़ना ही ध्यान है। स्वाध्याय से ध्यान की सिद्धि होती है और ध्यान से कायोत्सर्ग (देहातीत अवस्था) की सिद्धि होती है। इसी तथ्य को दशवैकालिक सूत्र में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है
सज्झाय सुज्झाण रयस्स ताइणो अपाव भावस्स तवे रयस्स । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ।।