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स्वाध्याय-भाव चिकित्सा की प्रयोग विधि ...115
उपसंहार
स्वाध्याय चित्तशुद्धि का एक श्रेष्ठ प्रयास है। स्वयं का स्व में अध्ययन करना अथवा मनन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय को परमतत्त्व की प्राप्ति का मूल बताते हुए प्राचीन ऋषियों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि 'स्वाध्यायान् मा प्रमदः'- स्वाध्याय में प्रमाद मत करो। स्वाध्याय का मूल्य सभी वर्गों में समान रूप से है। वैयक्तिक जगत हो या सामाजिक जगत, उसे संस्कारवान् बनाने हेतु स्वाध्याय ही एक मात्र स्थाई साधन है जैसे हिन्दू समाज वेद और गीता का, मुस्लिम समाज कुरान का, ईसाई समाज बाईबिल का, बौद्ध त्रिपिटक आदि का नित्य अध्ययन करते हैं वैसे ही जैन समाज के लिए आगम शास्त्रों का नित्य स्वाध्याय आवश्यक है। जैनाचार्यों ने गृहस्थ के षट्कर्मों में देव भक्ति और गुरु भक्ति के समान स्वाध्याय को भी अनिवार्य बतलाया है। जैसा कि कहा गया है
देवार्चा गुरुशुश्रुषा स्वाध्यायः संयमः तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।। गृहस्थ के लिए 1. देव भक्ति 2. गुरु सेवा 3. स्वाध्याय 4. संयम 5. तप और 6. दान- ये छह कर्म नित्य करणीय है अत: आत्मपोषण के लिए स्वाध्याय का आचरण करना ही चाहिए। जैसे अन्न के बिना तन दुर्बल हो जाता है वैसे ही स्वाध्याय के बिना मन दुर्बल हो जाता है।
जैन दार्शनिकों ने स्वाध्याय को विविध उपमाओं से अलंकृत किया है। ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में स्वाध्याय अंधकारपूर्ण जीवन-पथ को आलोकित करने के लिए अखंड रूप से प्रज्वलित दीपक के समान है। इसके दिव्य आलोक में हेय, ज्ञेय और उपादेय का परिज्ञान होता है।
शिष्य गौतम स्वामी ने प्रभु महावीर से जिज्ञासा की-भगवन्! स्वाध्याय से किस गुण की उपलब्धि होती है? भगवान ने समाधान देते हुए कहा कि स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। स्वाध्याय से आत्मा में निर्मल ज्ञान की ज्योति प्रगटती है। अज्ञान दशा समाप्त होती है। साधना का लक्ष्य अज्ञान को नष्ट करना है। स्वाध्याय अज्ञान रूपी रोग को नष्ट करने के लिए साक्षात संजीवनी बूटी है।
__शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दनवन की भी उपमा दी है जैसे नन्दनवन में चारों ओर एक से एक रमणीय, मन को आह्लादित करने वाले दृश्य होते हैं तथा वहाँ पहुँचकर मानव सभी प्रकार की आधि, व्याधि और उपाधि को विस्मृत