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114... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
प्रतिमाह की दृष्टि से स्वाध्याय काल का वर्गीकरण निम्न प्रकार है- ज्येष्ठ मास की प्रतिपदा एवं पूर्णमासी को पूर्वाह्न काल में वाचना की समाप्ति में एक पाद अर्थात एक वितस्ति (जानु) परिमाण की छाया कही गयी है अर्थात इस समय पूर्वाह्न काल में बारह अंगुल परिमाण की छाया रहने पर अध्ययन समाप्त कर देना चाहिए। वही समय अपराह्न काल की वाचना प्रारम्भ करने के लिए कहा गया है। पूर्वाह्न काल में स्वाध्याय प्रारम्भ करके उसे अपराह्न काल में पूर्ण करने पर सात पाद परिमाण छाया रहनी चाहिए। आषाढ़ मास से लेकर पौषमास तक प्रत्येक मास में दो अंगुल छाया परिमाण की वृद्धि होती है इस क्रम से प्रत्येक मास में दो-दो अंगुल की छाया परिमाण को बढ़ाते हुए वाचना समाप्त करनी चाहिए। जैसे- ज्येष्ठ मास में बारह अंगुल की छाया रहने पर पूर्वाह्न का स्वाध्याय समाप्त कर देना चाहिए। इसी तरह आषाढ़ में 14 अंगुल, श्रावण में 16, भाद्रपद में 18, आसोज में 20, कार्तिक में 22, मिगसर में 24 अंगुल परिणाम छाया रहने पर स्वाध्याय समाप्त कर लेना चाहिए तथा इस वृद्धि क्रम से पौष मास तक एक पाद-बारह अंगुल, दो पाद-चौबीस अंगुल हो जाते हैं। तत्पश्चात पौष मास से ज्येष्ठ मास तक प्रत्येक मास में सूर्य की छाया दो-दो अंगुल न्यून होती जाती है इस दृष्टि से पौष में 22, माघ में 20, फाल्गुन में 18, चैत्र में 16, वैशाख में 14 अंगुल परिमाण छाया रहने पर स्वाध्याय का निष्पाठन कर लेना चाहिए। स्वाध्याय कर्ता मनियों को प्रत्येक माह की हानि-वृद्धि रूप छाया का ध्यान रखते हुए स्वाध्याय का समापन करना चाहिए, यह स्वाध्याय का शुद्ध काल है। स्वाध्याय प्रारम्भ करने का काल प्रत्येक मास के लिए एक समान बतलाया गया है।50 स्वाध्याय योग्य काल में कुछ अपवाद ____ आचार्य शिवार्य अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के निम्न अपवाद कहते हैं कि संलेखनाधारी साधु वाचना, पृच्छना, परिवर्तना एवं धर्मोपदेश को छोड़कर सूत्र और अर्थ का ही एकाग्रता से स्मरण करते हैं तथा दिन के पूर्व, मध्य, अन्त एवं अर्ध रात्रि- ऐसे चार कालों में तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि खिरती है, फिर भी ये काल स्वाध्याय योग्य नहीं माने गये हैं, परन्तु संलेखनाधारी ऐसे समयों में भी अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं।51