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स्वाध्याय- भाव चिकित्सा की प्रयोग विधि... 111
साक्षात लोकोत्तर फल है तथा शिष्य-प्रशिष्यों को परम्परा से ज्ञान की प्राप्ति होना पारम्परिक परोक्ष फल है। परोक्ष फल भी दो प्रकार का होता है- एक अभ्युदय और दूसरा मोक्षसुख । सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग के उदय से देव, इन्द्र, राजा मण्डलीक, चक्रवर्ती आदि सुख की प्राप्ति होना यानी इन्द्रादि पद की उपलब्धि होना अभ्युदय सुख है और यह स्वाध्याय का लौकिक फल है तथा तीर्थंकर पद की प्राप्ति होना यह लोकोत्तर फल है। 44
समाहारतः स्वाध्याय करने से विपुल निर्जरा होती है। श्रुतज्ञान समृद्ध एवं स्थिर होता है। श्रद्धा, संयम, वैराग्य एवं तप में रुचि बढ़ती है। आत्म गुणों की पुष्टि होती है। मन एवं इन्द्रिय निग्रह में सफलता मिलती है। स्वाध्याय - धर्म ध्यान का आलम्बन कहा गया है, इससे चित्त की एकाग्रता सिद्ध होती है। फलतः धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है । स्वाध्याय न करने के दोष
स्वाध्याय आत्मविशुद्धि का परम हेतु है । स्वाध्याय की शुद्धि होती है। शुद्ध मन शीघ्र ही स्थिर हो जाता है। का निर्मल प्रतिबिम्ब झलकता है। साधक आत्म दर्शन करने में सक्षम हो जाता है। इस प्रकार स्वाध्याय क्रमशः आत्म दर्शन का कारण बनता है। टीकाकारों के
ज्ञान बढ़ता है। मन स्थिर चित्त में आत्मा
अनुसार स्वाध्याय न करने पर निम्न दोषों की संभावनाएँ रहती है
1. स्वाध्याय न करने से पूर्वगृहीत श्रुत विस्मृत हो जाता है। 2. नए श्रुत का ग्रहण एवं उसकी वृद्धि नहीं होती है।
3. चारित्र धर्म का अधिकांश समय विकथा एवं प्रमाद में बीतता हैं जिससे मोहनीयकर्म का बन्ध और अनन्त संसार बढ़ जाता है।
4. चारित्र गुणों का नाश होता है ।
5. स्वाध्याय के अभाव में साधक इन्द्रियजयी एवं मनोजयी नहीं बन पाता हैं परिणामस्वरूप आत्मिक शांति से दूर हो जाता हैं
6. स्वाध्याय आभ्यन्तर तप का एक प्रकार है । 'तपसा निर्जरा च' इस सूत्रोक्ति के अनुसार तप से निर्जरा होती है, जबकि स्वाध्याय न करने वाला इस लाभ से वंचित हो जाता है ।
7. श्रुत लाभ के अभाव में रत्नत्रय की पूर्णता नहीं हो पाती है और रत्नत्रय की पूर्णता के बिना मोक्ष प्राप्ति असंभव हो जाती है।