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स्वाध्याय- भाव चिकित्सा की प्रयोग विधि...109
स्वाध्याय का फल
स्वाध्याय के अनुपम फल की महिमा बताते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि इसके अवलंबन से पूर्वोपार्जित दुष्कर्म विनष्ट हो जाते हैं, वर्तमान के पापास्रवों का निरोध हो जाता है और अनागत के अशुभ कर्मों का प्रत्याख्यान हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार स्वाध्यायी जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है38 और स्वाध्याय के पंच आयामों को आत्मस्थ करता हुआ निम्न परिणाम उपलब्ध करता है।
वाचना (अध्यापन) से जीव कर्मों को क्षीण करता है। श्रुत (शास्त्र ज्ञान) की आशातना से बच जाता है। श्रुत की आशातना से बचने वाला जीव तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेता है - वह शिष्यों को श्रुत देने में प्रवृत्त होता है। तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेने वाला साधक कर्मों और संसार का अन्त करने वाला होता है। प्रतिप्रश्न (पृच्छना) से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्र- अर्थ दोनों से सम्बन्धित) संदेहों को दूर कर लेता है और कांक्षामोहनीय कर्म को विच्छिन्न कर देता है।
परावर्त्तना (पठित पाठ के पुनरावर्त्तन) से जीव स्मृति को परिपक्व और विस्मृत को याद करता है तथा व्यञ्जन - लब्धि (वर्ण - विद्या) को प्राप्त होता है । अनुप्रेक्षा (अर्थ का बार-बार चिंतन करने) से आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल कर देता है, दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन कर लेता है, उनके तीव्र रसानुभव को मन्दरसानुभाव कर लेता है, बहुकर्मप्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। असातावेदनीय कर्म का पुन: पुन: उपचय नहीं करता। संसार रूपी अटवी, जो अनादि और अनन्त है उसे शीघ्र ही पार कर लेता है। धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन (अर्हत्वाणी) की प्रभावना करता है । प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में कल्याणकारी फल देने वाले कर्मों का बन्ध करता है। श्रुत (आगम पाठ) की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है और क्लेश को प्राप्त नहीं होता। 39 दशवैकालिक चूर्णिकार के मत से अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है, वाचिक नहीं | 40
वह
श्रुतधर आचार्य शय्यंभवसूरि स्वाध्याय फल का निरूपण करते हुए कहते हैं कि जो मुनि तप, संयम योग और स्वाध्याय योग में सदा प्रवृत्त रहता है, क्रोधादि रूप सेना से घिर जाने पर आयुधों (शस्त्र) से सुसज्जित वीर की तरह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में समर्थ होता है ।