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________________ 108... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण हो तो नष्ट हो जाती है। उसी प्रकार शास्त्र से रहित मनुष्य भी नष्ट हो जाता है।31 यहाँ उपमा दृष्टांत से सुई-आत्मा है और डोरा-स्वाध्याय है। आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्त्तिक में स्वाध्याय की आवश्यकता को पुष्ट करते हुए कहा है कि 1. स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। 2. प्रशस्त स्वाध्याय की प्राप्ति होती है। 3. शासन की रक्षा होती है। 4. संशय की निवृत्ति होती है। 5. परवादियों की शंकाओं के निरसन की शक्ति प्राप्त होती है। 6. तप-त्याग में वृद्धि होती है और 7. अतिचारों की शुद्धि होती है।32 सर्वार्थसिद्धि से स्वाध्याय के सुपरिणामों की चर्चा करते हुए संशयोच्छेद और परवादियों की शंका का परिहार इन दो को छोड़कर राजवार्तिक का ही अनुकरण किया गया है।33 नयचक्र के कर्ता श्री देवसेनाचार्य के अनुसार द्रव्यश्रुत से भावश्रुत होता है फिर क्रम से सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्म संवित्ति और केवलज्ञान होता है।34 अतः श्रुतज्ञान को ग्रहण करने के पश्चात आत्म-संवेदन से उसे ध्याना चाहिए। जो श्रुत (स्वाध्याय) का अवलम्बन नहीं लेता वह आत्म सद्भाव से मोह करता है।35 समयसार में जो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान है उसे शास्त्र पठन का गुण कहा है।36 उपर्युक्त उद्धरणों से ध्वनित होता है कि स्वाध्याय या श्रुतार्जन साधना की चरम उपलब्धि हेतु अत्यावश्यक है। इसके सम्यक आश्रय से ही चैतन्य तत्त्व अनुपम-आत्मिक सुख का उपभोक्ता बनता है। अतएव आत्मानुशासन के निर्देशानुसार जो श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थ रूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनों रूपी पत्तों से व्याप्त है, नय रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है एवं विस्तृत मतिज्ञान रूप जड़ से स्थिर है, बुद्धिमान साधु उस श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष के ऊपर को अपने मन रूपी बन्दर को सदा रमाना चाहिए। मोक्षार्थी साधु को सदैव स्वाध्यायरत रहना चाहिए।37
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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