________________
स्वाध्याय-भाव चिकित्सा की प्रयोग विधि ...107 करते हुए प्रतिपादित किया है कि अर्हत्शास्त्र द्वारा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोह समूह का क्षय हो जाता है इसलिए शास्त्र का सम्यक प्रकार से अध्ययन करना चाहिए।27 ___ इसी क्रम में स्वाध्याय की आवश्यकता पर बल देते हुए यह कहा गया है कि इससे श्रमण एकाग्रता को प्राप्त करता है, एकाग्रता से पदार्थों का निश्चय होता है और निश्चय आगम द्वारा ही होता है इसलिए आगम व्यापार मुख्य है। आगमहीन श्रमण आत्मा को और पर पदार्थ को नहीं जानते हुए कर्मों का क्षय किस प्रकार करेगा? साधु आगम चक्षु है, सर्व प्राणी इन्द्रिय चक्षु वाले हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वत: चक्षु हैं। समस्त पदार्थ विचित्र गुण पर्यायों से युक्त है यह आगम सिद्ध हैं आगम द्वारा श्रमण उनका भी वास्तविक स्वरूप जान लेते हैं। इसी क्रम में आगमवेत्ता को सर्वोत्कृष्ट बतलाते हुए सूचित किया है कि इस लोक में जिसकी आगम पूर्वक दृष्टि नहीं है उसके संयम नहीं है और असंयत श्रमण कैसे हो सकता है? यदि आगम से पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती है तथा पदार्थों का श्रद्धान करने वाला यदि असंयत हो, तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। इसका हार्द यह है कि सम्यक श्रद्धान पूर्वक किए गए आगम अभ्यास (स्वाध्याय) से निर्वाणपद की उपलब्धि होती है।28
रयणसार में स्वाध्याय का मूल्यांकन करते हुए यह बताया है कि प्रवचन के सार का अभ्यास ही परब्रह्म परमात्मा के ध्यान का कारण है। विशुद्ध आत्मा के स्वरूप का ध्यान ही कर्मों का नाश एवं मोक्ष सुख की प्राप्ति का प्रधान कारण है। प्रवचनसार (जिनागम) का अभ्यास और वस्तु विचार ही ध्यान है। उसी से इन्द्रियों का निग्रह, मन का वशीकरण एवं कषायों का उपशम होता है। इस पंचमकाल में जिनागम का अभ्यास करना ही जिनागम है।29
दर्शनपाहुड में स्वाध्याय की उपादेयता को सिद्ध करते हुए उसे दुःख क्षय का मूल हेतु कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के वचन है कि यह जिनवचन रूप
औषधि इन्द्रिय विषय से उत्पन्न सुख को दूर करने वाली है तथा जन्म-मरण रूप रोग को दूर करने के लिए अमृत सदृश है और सर्व दुःखों के क्षय का कारण है।30 सूत्रपाहुड के अनुसार जो साधक सूत्र का जानकार है वह भव (संसार) का नाश करता है, जैसे सुई डोरे सहित हो तो गुम नहीं होती। यदि डोरे से रहित