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106... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
दूसरों को उसमें स्थिर करती है। इस प्रकार श्रुत समाधि से स्वाध्याय के चार प्रयोजन सिद्ध होते हैं।22 यही चर्चा स्थानांगसूत्र में भी की गई है। तदनुसार1. स्वाध्याय से श्रुत का संग्रह होता है।
2. शिष्य श्रुतज्ञान से उपकृत होता है, वह प्रेम से श्रुत की सेवा करता है । 3. इससे ज्ञान के प्रतिबंधक कर्मों की निर्जरा होती है।
4. अभ्यस्त श्रुत, विशेष रूप से स्थिर होता है।
दशवैकालिचूर्णि में स्वाध्याय को उत्कृष्ट तप की उपमा देते हुए कहा गया है कि बारह प्रकार का तप दो भागों में विभक्त है - बाह्य और आभ्यंतर | स्वाध्याय आभ्यंतर तप का चौथा प्रकार है। स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है। 23
नन्दी टीका में अज्ञानान्धकार को दूर करने वाला प्रमुख साधन स्वाध्याय को बतलाया है तथा उसे सद्ज्ञान की कोटि में स्थान दिया है। 24
भगवती आराधना में स्वाध्याय का माहात्म्य विविध दृष्टियों से रेखांकित किया गया है। आचार्य शिवार्य लिखते हैं कि जो साधु विनय गुण से युक्त होकर स्वाध्याय करता है - वह पाँचों इन्द्रियों का संवर करता है, वचन आदि त्रिगुप्तियों का पालक होता है और एकाग्र मन वाला होता है। जो अतिशयरस से युक्त है और जिसे पहले कभी सुना नहीं है ऐसे श्रुत का वह जैसे-जैसे अवगाहन करता है वैसे-वैसे नवीन धर्म - श्रद्धा से संयुक्त होता हुआ परम आनन्द का अनुभव करता है। स्वाध्याय निमग्न जीव स्वाध्याय से प्राप्त आत्म विशुद्धि द्वारा संयम और तप में स्थित बना हुआ तथा हेयोपादेय में विचक्षण बुद्धि रखता हुआ यावज्जीवन रत्नत्रय रूप साधना मार्ग में रत रहता है 125
आचार्य शिवार्य अन्य तपों से स्वाध्याय तप की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए कहते हैं कि सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जीव करोड़ों भवों में जितने कर्मों को नष्ट करता है, सम्यग्ज्ञानी जीव उतने कर्मों को अन्तर्मुहूर्त्त मात्र में क्षय कर देता है। अज्ञानी द्वारा दो, तीन, चार, पाँच आदि उपवास करने से जितनी विशुद्धि होती है उससे अनन्त गुणा शुद्धि भोजन करते हुए ज्ञानी के होती है | 26
कहने का आशय यह है कि स्वाध्याय करने पर मन, वचन, काया के सभी व्यापारों की विशुद्धि होती है। जिसके परिणामस्वरूप वह रत्नत्रय की आराधना में संलग्न होता हुआ विशुद्ध भावों के आरोहण द्वारा परमात्म स्थिति को समुपलब्ध कर लेता है। प्रवचनसार में स्वाध्याय को मोह क्षय का उपाय सिद्ध