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________________ स्वाध्याय- भाव चिकित्सा की प्रयोग विधि... 103 अभिशय्या या नैषेधिकी भूमि में स्वाध्याय के उद्देश्य अस्वाध्याय आदि पूर्वोक्त पाँच कारणों के समुपस्थित होने पर अभिशय्यादि अन्य भूमियों पर स्वाध्याय क्यों करना चाहिए? इसका निराकरण करते हुए बतलाया गया है कि वसति में अस्वाध्याय होने से सूत्र - अर्थ पौरुषी की हानि होती है। अति संकीर्ण वसति में यदि अनेक मुनियों का निवास होता है तो दिन में ज्यों-त्यों रह जाते हैं, परन्तु रात्रि में मुनियों का अति संघट्टन होता है। परस्पर हाथों का स्पर्शन होता है इससे नींद खुल जाती है, नींद न आने से अजीर्ण आदि रोग होते हैं। वसति प्राणियों से संसक्त हो गयी हो अथवा वसति में पानी चू रहा हो - इन दोनों में असंयम और संयम विराधना का दोष लगता है । पानी चूने के कारण उपधि गीली हो सकती है, रात्रि में जागना पड़ सकता है इससे मुख्यतः स्वाध्याय हानि होती है। वसति में निशीथ, व्यवहार आदि छेद श्रुत, विद्यामंत्र और योनि प्राभृत जैसे श्रुत रहस्यों को सुनकर अपरिणामक, अतिपरिणामक आदि शिष्य अनर्थ कर सकते हैं। इस विषय में महिष का दृष्टांत उल्लेखनीय हैएक बार एक आचार्य योनिप्राभृत नामक ग्रन्थ का एक प्रसंग पढ़ा रहे थे कि अमुक-अमुक द्रव्यों के संयोग से महिष उत्पन्न हो जाता है। एक उत्प्रव्रजित अगीतार्थ साधु ने छिपकर इस वाचना को सुना, अपने स्थान पर गया, निर्दिष्ट द्रव्यों का संयोजन कर, अनेक भैंसे बनाईं और गृहस्थ द्वारा उन्हें बिकवा दिया। इस प्रकार श्रुत रहस्य का कथन सार्वजनिक स्थान पर करने से ये दोष उत्पन्न होते हैं। 16 अभिशय्या या नैषेधिकी भूमि पर स्वाध्याय करने सम्बन्धी जो प्रयोजन बतलाए गए हैं, वे संयम विराधना एवं स्वाध्याय हानि आदि दोषों का निरसन करते हैं। अभिशय्या भूमि सम्बन्धी नियम यदि अस्वाध्यायिक आदि पूर्वोक्त कारण उत्पन्न होने पर यदि मुनियों को अभिशय्या भूमि आदि में जाना हो तो वे गणावच्छेदक के नेतृत्व में जाएं। उनके अभाव में प्रवर्त्तक, उसके अभाव में स्थविर, उसके अभाव में गीतार्थ मुनि के नेतृत्व में जाएं। इन सबके अभाव में अगीतार्थ की निश्रा में जाएं, किन्तु उन्हें अपनी सामाचारी से अवश्य अवगत करवाना चाहिए जैसे कि पौरुषी आदि का
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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