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102... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
उक्त पाँच प्रकारों में से किसी का भी आलम्बन लेकर स्वाध्याय किया जा सकता है। यदि अधिगृहीत शास्त्र पाठों का स्वाध्याय वाचना आदि पाँच प्रकारों से युक्त किया जाये तो विशेष लाभदायी होता है। स्वरूपतः स्वाध्याय के सभी प्रकार अनुकरणीय हैं। स्वाध्याय भूमि के प्रकार
__ जैन आगमिक टीकाओं में स्वाध्याय योग्य भूमि दो प्रकार की कही गई है1. नैषेधिकी और 2. अभिशय्या।
1. नैषेधिकी भूमि का अर्थ है- जहाँ स्वाध्याय के अतिरिक्त शेष सब प्रवृत्तियों का निषेध होता है। दिन हो या रात, वह स्थान केवल सूत्र-अर्थ के स्वाध्याय के लिए ही नियत होता है और साधुगण जहाँ से रात्रि में भी स्वाध्याय पूर्णकर वसति में आ सकते हैं, वह नैषेधिकी भूमि कहलाती है।
निषद्या का अर्थ है- जहाँ पर स्वाध्याय हेतु आकर बैठते हैं।
2. अभिशय्या भूमि का अर्थ है- जहाँ रात्रि में स्वाध्याय करने के पश्चात वहीं रात्रि व्यतीत कर उषाकाल में वसति में आ सकते हैं, वह अभिशय्या स्थान कहलाता है।14
इन भूमियों के अतिरिक्त स्वाध्याय हेतु सामान्य स्थान भी होता है जहाँ स्वाध्याय करने वाले मुनि ठहरते हैं।
स्वाध्याय भूमि के उक्त दोनों प्रकार विशिष्ट प्रयोजन से माने गए हैं। कब, किस भूमि में स्वाध्याय करना चाहिए? इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों का स्पष्टीकरण निम्न प्रकार हैंअभिशय्या या नैषेधिकी भूमि में गमन करने के प्रयोजन
भाष्यकार संघदासगणि ने नैषेधिकी या अभिशय्या सम्बन्धी भूमि में गमन करने के मुख्यतः पाँच कारण बताये हैं- 1. मूल वसति अस्वाध्यायिक हो। 2. बहुत प्राघूर्णक (अतिथि मुनियों) के आने से वसति संकीर्ण हो गई हो। 3. वसति जीव-जन्तुओं से संसक्त हो गई हो। 4. वर्षा के कारण वसति के कई भाग गलित हो रहे हों। 5. छेद सूत्र आदि गोपनीय ग्रन्थों की व्याख्या करनी हो।15
उक्त पाँच कारणों में से प्रथम-अस्वाध्यायिक और चरम-श्रुतरहस्यार्थ- इन दो प्रयोजनों से नैषेधिकी या अभिशय्या भूमि में जाना चाहिए, शेष कारणों से अभिशय्या में ही जाना चाहिए।