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________________ 88... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण अन्य जातीय प्रजा हो तो साधुओं के प्रति द्वेष भाव या कलह आदि कर सकते हैं। इन कारणों से धर्मशास्त्रों के पठन का भी निषेध समझना चाहिए। शेष दोनों संन्ध्या कालों में आगमानुसार प्रतिक्रमण और शय्या-उपधि की प्रतिलेखना करनी चाहिए। इस समय में स्वाध्याय करने पर इन आवश्यक क्रियाओं के समय का अतिक्रमण हो जाता है। ___ सन्ध्याकाल में स्वाध्याय न करने का तीसरा कारण यह निर्दिष्ट है कि ये चारों काल व्यन्तर देवों के भ्रमण करने के हैं। अत: स्वाध्याय करते हए किसी प्रकार का प्रमाद होने पर या सूत्रोच्चार में स्खलना होने पर उनके द्वारा उपद्रव होना सम्भव है। लौकिक व्यवहार में भी प्रात: एवं सायं प्रभु स्मरण के और मध्याह्न एवं अर्द्धरात्रि प्रेतात्माओं के भ्रमण के माने जाते हैं।38 व्यवहारभाष्य और निशीथभाष्य में उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा गया है कि चारों संध्याओं में गुह्यक देव गमनागमन करते हैं। वे प्रमत्त स्वाध्यायी को छल सकते हैं। संध्याकाल में सूत्रपाठ करने से लोक में गर्दा होती है। अत: स्वाध्याय से निवृत्त चित्त वाला संध्या के समय आवश्यक में ही उपयोगवान होता है। यहाँ प्रश्न होता है जब संध्या में स्वाध्याय नहीं किया जाता, तब आवश्यक कैसे किया जाता है? आचार्य कहते हैं- दोनों संध्याओं में लोगों द्वारा आह्वान करने पर देव यज्ञ आदि अनुष्ठानों में ठहर जाते हैं, तब तक आवश्यक भी सम्पन्न हो जाता है। अतएव आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) दोनों संध्याओं में अवश्य करणीय है।39 इन चतुष्क वेलाओं में आगम के मूल पाठ का उच्चारण, वाचना रूप स्वाध्याय करने से ज्ञानाचार के प्रथम प्रकार की विराधना होती है और ज्ञान के अतिचार 'अकाले कओ सज्झाओ' का सेवन होता है। सन्ध्याओं में अस्वाध्याय का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि इन चार कालों में स्वाध्याय न करने से साधु को कुछ विश्रान्ति भी मिल जाती है। परसमुत्थ सम्बन्धी अस्वाध्याय के कारण परसमुत्थ अस्वाध्याय के संयमघाती प्रकारों में महिका के समय समूचा वातावरण अप्कायमय हो जाता है, सचित्तरज के समय आस-पास का क्षेत्र पृथ्वीकायमय बन जाती है, वर्षा के समय सारा वातावरण अप्कायमय बन जाता है उस स्थिति में स्वाध्याय हेतु शरीर के अवयवों का संचालन करने से जीव विराधना होती है अत: अस्वाध्याय होता है।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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