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82... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
यहाँ जिज्ञासु प्रश्न कर सकता है कि यदि रक्त, मांस आदि से अस्वाध्याय होता है, तब तो सम्पूर्ण शरीर ही रक्त, मांस, आदि अशुचि पदार्थों से युक्त है, उस स्थिति में देहगत रहते हुए कभी भी स्वाध्याय कैसे किया जा सकता है ? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो रक्त, मांस आदि शरीर से वियुक्त हो गए हैं या स्पष्टत: बाहर दिखाई देते हैं, उन्हीं स्थिति में स्वाध्याय वर्ज्य है और यदि वे शरीर से अपृथक् या अदृश्य हैं तो स्वाध्याय आदि किया जा सकता है। लोक व्यवहार में भी उसे घृणित नहीं माना जाता है।
लोक में यह भी स्पष्ट रूप से देखते हैं जो पुरुष आभ्यन्तर मल से युक्त है वह देवता की पूजा-अर्चना करता है जबकि बाह्य अशुचि वाला पुरुष देवार्चना नहीं करता, परन्तु शरीर से मलं की शुद्धि कर दी जाये तो पूजा कर सकता है।
जो जान-बूझकर प्रतिमा का अपराध करता है तो प्रतिमा के अधिष्ठित देवता उसको क्षमा नहीं करता, इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी अपराध को क्षमा नहीं करता । इससे इहलोक और परलोक में दंडित होना पड़ता है । इहलोक का दंड है - प्रमत्त देवता द्वारा छला जाना और परलोक का दंड है - दुर्गति की प्राप्ति होना ।
जो राग और द्वेष वश अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है, वह सोचता है कि अमूर्त ज्ञान की क्या आशातना ? ज्ञान से कौन सा अनाचार होता है? इन दोष युक्त विचारों का निराकरण करते हुए टीकाकार कहते हैं कि गणी, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि लोक पूजित हैं वे यदि अस्वाध्याय में स्वाध्याय करते हैं तो वह रागवश होता है। जो गणि आदि दूसरों को आदर नहीं देकर अस्वाध्याय में स्वाध्याय करते हैं तो वह द्वेषवश होता है। जो यह मानकर अस्वाध्याय में स्वाध्याय करते हैं कि सब कुछ अस्वाध्यायमय है तो यह मोहवश होता है इससे अमूर्त ज्ञान का भी निश्चय ही विफल परिणाम होता है अतः अकाल में स्वाध्याय करने पर निश्चय ही अनाचार और श्रुतज्ञान की आशातना होती है।
श्रुतज्ञान की आशातना का इहलौकिक फल यह है कि अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने पर साधक उन्माद (पागलपन) आदि रोगों से ग्रसित हो सकता है, मिथ्यात्वी देवों द्वारा उसे आतंकित किया जा सकता है तथा जिनाज्ञा के प्रति आभ्यंतर निष्ठा न होने से संयम से पतित भी हो सकता है। उसका