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अनध्याय विधि : एक आगमिक चिन्तन ...81
अनेक साधु-साध्वियों का सामूहिक स्वाध्याय चल रहा हो, तो कभी किसी के और कभी किसी के अस्वाध्याय का कारण बना रहता है। उस स्थिति में वाचना देने या वाचना लेने की विधि न की जाये तो अनेक दिन ऐसे ही व्यतीत हो सकते हैं और सूत्रों की वाचना में भी अव्यवस्था हो जाती है। अतएव मासिक धर्म और अन्य व्रण सम्बन्धी अस्वाध्याय में अर्थ का श्रवण करना आपवादिक नियम है तथा इसमें भी रक्त- पीप आदि का उचित विवेक रखते हुए साधु या साध्वी को वाचना का लेन-देन करना चाहिए।
• यह जानना भी आवश्यक है कि यहाँ वाचना का तात्पर्य आगमों के अर्थ से है न कि मूल पाठ के उच्चारण से, क्योंकि आगमपाठ देववाणी रूप होने से अस्वाध्याय काल में उनका मौखिक उच्चारण करना दोष युक्त है।
उपर्युक्त वर्णन का हार्द यह है कि स्वशरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय के दोनों प्रकारों में निर्दिष्ट विधि का परिपालन करते हुए विवेक पूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए। श्वेताम्बर (मूर्तिपूजक) सम्प्रदाय में ऋतु धर्म सम्बन्धी अस्वाध्याय होने पर तीन दिन किसी प्रकार का स्वाध्याय नहीं किया जाता है। श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में ऋतुधर्म के तीन दिनों में आगम सूत्रों का स्वाध्याय नहीं करते हैं। दिगम्बर परम्परा में उन दिनों कायिक चेष्टाओं का भी निरोध कर दिया जाता है तब स्वाध्याय का तो प्रश्न ही नहीं उठता ? अस्तु इस परम्परा में तीन दिन तक समग्र रूप से स्वाध्याय का परिहार किया जाता है। अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के दोष
आवश्यकनिर्युक्ति एवं व्यवहारभाष्य 31 में अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के निम्न दोष बतलाये गये हैं
अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान की अभक्ति और विराधना होती है तथा यह पद्धति लोकविरुद्ध भी है ।
प्रान्तदेवता (क्षेत्रदेवता) उस प्रमत्त स्वाध्यायी को कष्ट दे सकते हैं
जिस प्रकार विपरीत साधन से साध्यमान विद्या सिद्ध नहीं हो सकती है उसी तरह अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से श्रुतज्ञान भी सिद्ध नहीं होता है । आत्मसमुत्थ अर्थात (स्व शरीर) विषयक अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करने पर आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं।