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80... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
को दो प्रकार का बताया गया है - 1. व्रण सम्बन्धी और 2. ऋतुधर्म सम्बन्धी। इसमें श्रमणों के भगंदर आदि विषयक एक प्रकार का एवं श्रमणियों के भगंदर आदि तथा ऋतु धर्म दोनों प्रकार का अस्वाध्याय होता है ।
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आगमिक व्याख्या साहित्य के अनुसार फोड़े-फुन्सी, भगंदर, मसा आदि के होने पर शरीर में से रक्त या पीप का बाहर आना व्रण सम्बन्धी अस्वाध्याय है। जब पीप या रक्त आदि बाहर आ रहा हो उस समय अस्वाध्याय रहता है किन्तु उस जगह की शुद्धि करके एवं अशुचि को 100 हाथ के बाहर परिष्ठापित कर स्वाध्याय किया जा सकता है। यदि शुद्धि करने के बाद भी रक्त आदि निकलता रहे तो स्वाध्याय नहीं किया जा सकता है। यद्यपि श्रमण के शरीर में से रक्तादि बहता हो तो उस पर एक पट्टी बाँधकर वाचना ली - दी जा सकती है। फिर भी उसमें से रक्त बहता हो तो नमक के पानी का प्रयोग कर एवं दूसरी पट्टी बाँधकर वाचना क्रम निरन्तर रखा जा सकता है। तदुपरान्त तीसरी पट्टी बाँधकर भी वाचना का स्वाध्याय किया जा सकता है। इस प्रकार एक-दो उत्कृष्टतः वस्त्र के तीन पट्ट बाँधकर परस्पर में आगम की वाचना ली - दी जा सकती है। यदि तीन पट्टी बांधने के बाद भी खून दीखने लग जाए तो उस स्थिति में पुनः शुद्ध करने के पश्चात ही स्वाध्याय करना कल्पता है । इसी तरह श्रमणियों के व्रणविषयक अस्वाध्याय होने पर पूर्ववत सात बंधन तक का प्रावधान है। इतने पर भी यदि रक्त प्रवाह न रूके तो पुनः से धोकर बंधन देकर वाचना दे सकती हैं अथवा अन्यत्र जाकर पढ़ सकती है। 28
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ऋतुधर्म सम्बन्धी अस्वाध्याय तीन दिन तक रहता है । व्यवहार सूत्रकार इस सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश करते हैं कि श्रमणों एवं श्रमणियों को स्व शरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है किन्तु श्रमण अर्थरूप वाचना दे रहे हों तो अपवादतः श्रमणियाँ उस वाचना को सुन सकती हैं। 29
• यहाँ यह मननीय है कि औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय के दस प्रकारों में शरीर विषयक समस्त अस्वाध्याय का अन्तर्भाव हो जाता है तथापि आत्मसमुत्थ विषयक अस्वाध्याय में पुनः स्वाध्याय निषेध करने का कारण यह है कि मासिक धर्म सम्बन्धी या अन्य व्रण सम्बन्धी अस्वाध्याय निरन्तर चालू रहता है, उतने समय तक किसी भी सूत्र का वाचन चल रहा हो उसे बंद कर देना या अधूरे में छोड़ देना उपयुक्त नहीं है। विवेचनकार का अभिमत है कि