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अनध्याय विधि : एक आगमिक चिन्तन ...77
(ii) मनुष्य सम्बन्धी - मनुष्य सम्बन्धी अस्वाध्याय चार प्रकार से होता है - चर्म, रूधिर, मांस और हड्डी ।
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पूर्वोक्त चर्मादि चारों प्रकारों में से हड्डी को छोड़कर शेष तीन स्वाध्याय भूमि से सौ हाथ के भीतर पड़े हों तो वहाँ एक अहोरात्र पर्यन्त अस्वाध्याय रहता है। जितना सम्भव हो मनुष्य की अशुचि की वस्तुएँ वहाँ से हटवा देनी चाहिए।
• यदि मनुष्य या तिर्यंच सम्बन्धी रक्त बिन्दु अधिक समय गिरे रहने के कारण खेर की लकड़ी के सत्त्व की तरह स्वभावतः और वर्णतः विवर्ण हो गए हों तो वहाँ स्वाध्याय कर सकते हैं, उसमें अस्वाध्याय का दोष नहीं लगता है।
• रजस्वला स्त्री के लिए तीन दिन अस्वाध्याय रहता है। यदि किसी स्त्री के तीन दिन के पश्चात भी अशुचि रहती हो तो स्वाध्याय किया जा सकता है, क्योंकि उस समय रुधिर विवर्ण हो जाता है अथवा शरीर सम्बन्धी अन्य रोगोत्पत्ति के कारण ऐसी स्थिति बनी रहे तो भी अस्वाध्याय नहीं होता है ।
• यदि पुत्र का जन्म हो तो सात दिन और पुत्री का जन्म हो तो आठ दिन अस्वाध्याय काल रहता है, तदुपरान्त स्वाध्याय कर सकते हैं। पुत्र एवं पुत्री के अस्वाध्याय सम्बन्धी काल का अन्तर इस कारण है कि पुत्र में शुक्र की अधिकता और पुत्री में रक्त की अधिकता होती है।
• यदि बालक आदि का दाँत सौ हाथ के भीतर गिरा हो तो प्रयत्न पूर्वक देखना चाहिए, मिल जाए तो उसे दूर फेंक देना चाहिए। यदि खोजने पर भी न मिले तो स्थान शुद्धि मानकर वहाँ स्वाध्याय किया जा सकता है। आवश्यकसूत्र के भाष्यानुसार अस्वाध्याय निवारण हेतु कायोत्सर्ग करके स्वाध्याय करना चाहिए।
• यदि शरीर सम्बन्धी अस्थियाँ सौ हाथ के भीतर पड़ी हुई हों और प्रयत्नपूर्वक भी न मिल पाएं तो वहाँ बारह वर्ष तक अस्वाध्याय रहता है। यदि अस्थियाँ श्मशान में दग्ध हो गई हों अथवा जल प्रवाह में बहा दी गई हों तो अस्वाध्याय नहीं रहता है। वर्तमान में अस्थि विसर्जन की परम्परा लगभग सभी धर्मों में प्रवर्त्तित है अतः इस दोष की संभावनाएँ अल्पतम रह गई है।
• यदि श्मशान में मृत कलेवर रखा हुआ हो, पाण- रूद्र- मातृ-गृह (यक्षायतन) के नीचे मृत व्यक्ति की अस्थियाँ स्थापित की गई हों और वह स्थान