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66... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
16. चन्द्रग्रहण- चन्द्र ग्रहण होने पर जघन्य से आठ प्रहर, उत्कृष्ट से बारह प्रहर और मध्यमत: आठ से बारह प्रहर तक अस्वाध्याय रहता है। यह अस्वाध्याय काल चन्द्र ग्रहण के प्रारम्भिक काल से ही समझना चाहिए अथवा जिस दिन चन्द्रग्रहण हो उस दिन अहोरात्रि तक जानना चाहिए।
17. सूर्यग्रहण- सूर्यग्रहण होने पर जघन्य से बारह और उत्कृष्ट से सोलह प्रहर का अस्वाध्याय काल होता है।
18. पतन- किसी नगर के राजा, मन्त्री आदि प्रमुख व्यक्ति की मृत्यु होने पर अस्वाध्याय होता है। राजा आदि मान्य पुरुष की मृत्यु होने पर जब तक उस नगरी में शोक का वातावरण बना रहे और नया राजा स्थापित न हो तब तक अस्वाध्याय काल मानना चाहिए तथा उसके पूरे राज्य में भी एक अहोरात्र का अस्वाध्याय काल मानना चाहिए।
19. राजा व्युद्ग्रह- जहाँ राजाओं के परस्पर में युद्ध चल रहा हो उस स्थल के निकट एवं उस देश की राजधानी में भी अस्वाध्याय काल होता है। युद्ध के समाप्त होने के पश्चात भी एक अहोरात्र तक अस्वाध्याय काल रहता है।
20. औदारिक कलेवर- उपाश्रय में मृत मनुष्य का शरीर पड़ा हो तो जब तक कलेवर पड़ा रहे तब तक क्षेत्र से 100 हाथ के भीतर अस्वाध्याय काल होता है। तिर्यंच का मृत कलेवर पड़ा हो तो जब तक कलेवर पड़ा रहे तब तक 60 हाथ के भीतर अस्वाध्याय काल रहता है। परम्परागत मान्यता यह है कि औदारिक कलेवर जब तक रहे तब तक उस स्थान (उपाश्रय) की सीमा में अस्वाध्याय काल रहता है। मृत या टूटे हुए अंडे का तीन प्रहर का अस्वाध्याय रहता है। महोत्सव सम्बन्धी अस्वाध्याय
लौकिक अवधारणा के अनुसार आषाढ़-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिक-पूर्णिमा एवं चैत्र-पूर्णिमा-ये चार दिन महोत्सव रूप माने गये हैं। निशीथसूत्र में इन तिथियों को क्रमश: इन्द्र महोत्सव, स्कन्द महोत्सव, यक्ष महोत्सव और भूत महोत्सव के रूप में माना जाता है। जैनाचार्यों ने इन दिनों में भी स्वाध्याय करने का निषेध किया है।