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जैन आगम : एक परिचय ...49
बालमरण से मरकर दुर्लभ बोधि-विराधक बनता है। साधु-साध्वी का आराधना पूर्वक पंडित मरण होने से वे तीन भव में मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।133
इसके अतिरिक्त इसमें श्रावक के बारह व्रत, पाँच अणुव्रत ग्रहण करने की विधि, गृहीत व्रतों में लगने वाले अतिचारों की शुद्धि, अठारह पापस्थानकों के त्याग का उपदेश, एकत्व भावना का चिन्तन आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
3. महाप्रत्याख्यान- इस प्रकीर्णक में देह त्याग का विस्तृत विवेचन किया गया है अत: इसका नाम महाप्रत्याख्यान है। इसमें 142 गाथाएँ हैं। यह प्राकृत पद्य शैली में है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थंकरों, सिद्धों और संयमियों को नमस्कार किया गया है तथा पाप कार्य एवं दुष्चारित्र की निंदा करते हुए उनके त्याग पर बल दिया है। इसमें बताया गया है कि जीव को शल्य रहित होकर पापों की आलोचना करनी चाहिए, क्योंकि सशल्य की आराधना निरर्थक होती है और निःशल्य की आराधना सार्थक होती है। इसमें यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि आलोचक की आराधना उत्कृष्ट हो तो वह उसी भव में मोक्ष प्राप्त करता है तथा जघन्य और मध्यम आराधना हो, तो सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त करता है।
इस प्रकीर्णक का मुख्य ध्येय भोगों का त्याग करना है, क्योंकि त्याग से वैराग्य दृढ़ होता है और वैराग्य से आत्मा मोक्ष के निकट पहुँचती है।
4. भक्तपरिज्ञा- यह प्रकीर्णक भक्त परिज्ञा अनशन का विवेचन करता है अत: इसका नाम भक्तपरिज्ञा है। इसमें प्राकृत पद्य की 172 गाथाएँ हैं। कुछ विद्वानों ने इसके संकलन कर्ता आर्य वीरभद्र को माना है। इस प्रकीर्णक के प्रारम्भ में कहा गया है कि जिनाज्ञा का पालन करने से वास्तविक सुख की प्राप्ति होती है और पंडितमरण से आराधना सफल होती है।
तदनन्तर पंडितमरण के 1. भक्तपरिज्ञा (अनशन) 2. इंगिनी (अनशन) और 3. पादपोपगमन (अनशन) ये तीन प्रकार बतलाये गये हैं।134 तदनन्तर भक्तपरिज्ञामरण के दो भेद कहे गये हैं- 1. सविचार और 2. अविचार। पुनश्च भक्तपरिज्ञा का वर्णन करते हुए कहा है कि जो आत्मा सम्यकदर्शन से भ्रष्ट है उसकी मुक्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन से युक्त व्यक्ति ही मुक्ति का अधिकारी है, क्योंकि जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ ज्ञानादि चतुष्टय की प्रतिष्ठा है।