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जैन आगम : एक परिचय... 47
वर्णन है। सामान्यतया इसके रचयिता देवभद्रगणि कहे जाते हैं किन्तु कुछ विद्वान देवर्द्धिगण को भी इसका रचयिता मानते हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की पाँचवीं शती है।
2. अनुयोगद्वारसूत्र - अनुयोग का अर्थ है- व्याख्या अथवा विवेचन । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार सूत्र का अपने अर्थ के अनुरूप या अनुकूल व्यापार होना अनुयोग कहलाता है अथवा अनुयोग में आगम सूत्रों का अपने अर्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। द्वितीय अर्थ के अनुसार इसमें आगम सूत्रों की व्याख्या पद्धति का निर्देश होता है। इसलिए इसका नाम अनुयोग है। इसमें व्याख्या पद्धति के चार अंग बताए हैं - 1. उपक्रम 2. निक्षेप 3. अनुगमन और 4. नय । नियुक्तियाँ निक्षेप पद्धति मूलक होती हैं। यह सूत्र पाठों को सुगमता से समझने का एक प्रकार है । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में पंच ज्ञानों के द्वारा मंगलाचरण किया गया है । तदनन्तर इस सूत्र में आवश्यक आदि जैन पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण एवं अनुयोगों का सुविस्तृत विवेचन है। जैन आगमों की परिभाषा (terminalogy) समझने के लिए जरूरी बौद्धिक व्यायाम इस सूत्र के परिशीलन से प्राप्त होता है। इसमें चार द्वार हैं, 152 गद्य सूत्र हैं और 143 पद्य सूत्र हैं। यह 1899 श्लोक परिमाण में है ।
यह ग्रन्थ सभी आगमों को एवं उनकी व्याख्याओं को समझने में कुंजी सदृश है। वर्तमान संस्करण के अनुसार इसका श्लोक परिमाण 1399 एवं मतान्तर से 1604, 1800 एवं 2005 माना गया है।
प्रकीर्णक सूत्र
सामान्य रूप से प्रकीर्णक शब्द का अर्थ - विविध, बिखरा हुआ आदि है । नंदी टीका के अनुसार अरिहंत प्रभु द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके जिन ग्रन्थों को निर्यूढ या संकलित किया जाता है वे सब प्रकीर्णक कहलाते हैं अथवा जिनमें अरिहंत के द्वारा उपदिष्ट मोक्ष मार्ग का सूत्रानुसारी प्रतिपादन किया जाता है, वे प्रकीर्णक कहलाते हैं। 131 चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के शासन में चौदह हजार प्रकीर्णक माने गये हैं, उनमें आज अनेक प्रकीर्णक प्राप्त होते हैं। जिसमें से 45 आगमों की गिनती में 10 प्रकीर्णकों का समावेश किया गया है। उन प्रकीर्णकों का सामान्य स्वरूप इस प्रकार है
1. चतुःशरण- चतु: शरण का दूसरा नाम कुशलानुबन्धी अध्ययन भी है। इसमें 63 गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ का मुख्य विषय 'चार शरण' है। इसमें सांसारिक