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42... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
प्रथम ‘सामायिक' नामक अध्ययन में सावध व्यापार से निवृत्त एवं समभाव में प्रवृत्त होने की बात कही गई हैं। द्वितीय 'चतुर्विंशतिस्तव' अध्ययन में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है तथा उनसे आरोग्य एवं बोधिलाभ की याचना की गई है। तृतीय 'वन्दन' अध्ययन में गुरुवन्दन विधि का प्रतिपादन है। चतुर्थ अध्ययन में आत्मिक शुद्धि एवं व्रत पालन में हुई स्खलनाओं से विरत होने के लिए प्रतिक्रमण का निरूपण है। पंचम ‘कायोत्सर्ग' अध्ययन में आत्मा
और देह की भिन्नता का अवबोध कराने वाली कायोत्सर्ग साधना का वर्णन है। षष्ठम 'प्रत्याख्यान' अध्ययन में त्रैकालिक दुष्प्रवृत्तियों के त्याग (प्रतिज्ञा) का विवेचन किया गया है। प्रत्याख्यान से आत्मा संयम में स्थिर होती है। _. इन छह आवश्यकों के द्वारा आत्मा की त्रैकालिक शुद्धि होती है जैसेसामायिक चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन एवं कायोत्सर्ग से वर्तमान के पापों की शुद्धि होती है, प्रतिक्रमण से अतीत के पापों की शुद्धि होती है तथा प्रत्याख्यान से भविष्य में आत्मा कर्मबद्ध युक्त न हो, इसकी पुष्टि होती है। ___4. पिण्डनियुक्तिसूत्र- जैन दर्शन में पिण्ड का अर्थ भोजन किया है। इस सूत्र में मनि की आहार विधि का वर्णन किया गया है इसलिए इसका नाम पिण्डनियुक्ति है। इसमें 671 गाथाएँ हैं। पिण्डनियुक्ति में मुख्य रूप से आठ अधिकार हैं- 1. उद्गम 2. उत्पादन 3. एषणा 4. संयोजना 5. प्रमाण 6. अंगार 7. धूम और 8. कारण। इन अधिकारों में इनके नाम के अनुसार विषय का वर्णन किया गया है।
विद्वानों की मान्यता है कि यह दशवैकालिक नियुक्ति का एक भाग है। दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। सम्भवत: यह नियुक्ति इस अध्ययन पर लिखी गई है तथा बृहद् हो जाने के कारण इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में स्वीकारा गया है। कुछ विद्वान पिण्डनियुक्ति के स्थान पर ओघनियुक्ति को मूलसूत्र मानते हैं।124 यह आगम 7691 श्लोक परिमाण में उपलब्ध है।
5. ओघनियुक्तिसूत्र- ओघ का अर्थ सामान्य या साधारण है। इसमें मुनि जीवन की समाचारी का सामान्य कथन किया गया है अतः इसका नाम
ओघनियुक्ति है। पिण्डनियुक्ति की भाँति इसमें भी श्रमणों के आचार-विचार का प्रतिपादन होने से इसे नियुक्ति के स्थान पर मूलसूत्र भी माना है। कुछ विज्ञों का मत है कि यह आवश्यक नियुक्ति का ही एक अंश है तथा इसमें उदाहरण के