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वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप...21 ही हैं, परन्तु पात्र को वाचना न देने से भी अपयश होता है इसी से सूत्र-अर्थ का विच्छेद और प्रवचन की हानि भी होती है। 'ये पक्षपातयुक्त हैं' इस रूप में गुरु की अपकीर्ति होती है अत: योग्य शिष्य को निश्चित रूप से वाचना देनी चाहिए।23 __ आचार्य हरिभद्रसरि ने भी अयोग्य शिष्य को वाचना देना दोषकारी माना है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार शरीर में उत्पन्न होने वाले कफ आदि रोग पक न जाएं, उसके पूर्व ही उस रोग का उपचार प्रारम्भ कर देना अथवा रोग शमनार्थ औषध सेवन करना उस रोगी के लिए अहितकर बनता है उसी प्रकार अतिपरिणत (ज्ञान अहंकारयक्त) और अपरिणत (अपरिपक्व बुद्धिमान) शिष्य को छेदसूत्रादि की वाचना देना, उसके विचित्र कर्मोदय रूप दोष के कारण अहितकारी होती है। कारण कि, विपरीत बुद्धिपूर्वक सुनने से हितकारी वाचना भी दुष्परिणाम वाली हो जाती है। जिस प्रकार कच्चे घड़े में डाला गया पानी घड़े का नाश करता है, उसी प्रकार अयोग्य को दिया हुआ सिद्धान्तों का रहस्य उसकी आत्मा का नाश करता है।
दूसरा दोष यह है कि अतिपरिणत और अपरिणत जीव स्वभावत: मिथ्याग्रही होते हैं अत: अयोग्य या अपरिपक्व जीवों को दी गयी वाचना विपरीत परिणाम वाली होती है ऐसे व्यक्ति मिथ्या बुद्धि के कारण मिथ्या प्ररूपणा भी करते हैं।24 ___ विशेषावश्यक भाष्य में यह भी कहा गया है कि जो एक अर्थपद को भी यथार्थ रूप से ग्रहण नहीं कर पाता, ऐसे अयोग्य शिष्य को वाचना देने से आचार्य और श्रुत का अवर्णवाद होता है। जिसके परिणामस्वरूप कोई कहता है कि आचार्य कुशल नहीं है, उनमें प्रतिपादन की क्षमता नहीं है और कोई कहता है कि श्रुतग्रन्थ परिपूर्ण नहीं है।
अयोग्य शिष्य को वाचना देने में समय भी अधिक बीत जाता है, इससे आचार्य सूत्र और अर्थ का यथोचित परावर्तन नहीं कर सकते, अन्य योग्य शिष्यों को पूर्ण वाचना नहीं दे सकते। इस तरह सूत्र और अर्थ की परिहानि होती है। ___ जैसे वन्ध्या गाय स्नेह पूर्वक स्पर्श करने पर भी दूध नहीं देती, वैसे ही मूढ़ शिष्य कुशल गुरु से एक भी अक्षर ग्रहण नहीं कर पाता है। प्रत्युत अयोग्य