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अध्याय-2
वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप
वाचना जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है। योगवाही अथवा योग्य शिष्य को आगम पढ़ाना अथवा सूत्रार्थ समझाना वाचना दान कहलाता है तथा शिष्य के द्वारा उन्हें गुरु मुख से विधिपूर्वक धारण करना वाचना ग्रहण कहलाता है। वाचना के माध्यम से आगम ग्रन्थों का बहमान एवं उत्कीर्तन होता है।
जैन परम्परा में आगम सूत्रों का आदान-प्रदान वाचनापूर्वक होता है। वाचना शब्द का अर्थ एवं परिभाषाएँ
वाचना शब्द 'वच्' धातु एवं णिच् + ल्युट + टाप् इन प्रत्ययों के संयोग से निष्पन्न है। वच् धातु वचनार्थक होने से वाचना का अर्थ 'कहना' होता है। यहाँ वाचना का अभिप्रेत आगम निहित तत्त्वों के रहस्यों को उद्घाटित करना और सूत्रार्थ का सम्यक बोध करवाना है।2
जैन साहित्य में वाचना के निम्नोक्त अर्थ प्राप्त होते हैं - शास्त्र का अध्ययन करवाना वाचना है।
गुरु या श्रुतधर से शास्त्र का अध्ययन करना वाचना है। • स्थानांगटीका एवं विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार गुरु मुख से सुनकर
ज्ञान प्राप्त करना वाचना है। • उत्तराध्ययनटीका में गुरु के समीप सूत्राक्षरों के ग्रहण करने को वाचना
कहा गया है तथा गुरु द्वारा दिया गया सूत्र ज्ञान वाचना है।' • प्राकृतकोश के अनुसार गुरु के द्वारा, अध्ययन-अध्यापन, व्याख्यान, सूत्रपाठ आदि की प्रवृत्ति करना वाचना कहलाता है।
उक्त अर्थों के मूल रूप से द्विविध आशय हैं। प्रथम आशय के अनुसार गुरु के द्वारा आगम सूत्रों का अध्ययन करवाना तथा उनके रहस्यों को स्पष्ट करना वाचना है तथा दूसरे आशय के अनुसार गुरु मुख से सूत्र एवं अर्थ को ग्रहण कर उसका अवधारण करना वाचना है। इनमें प्रथम अर्थ वाचना दान से सम्बन्धित है और दूसरा वाचना ग्रहण से सम्बद्ध है।