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4...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
गणि - श्रमण समुदाय का अधिपति गणि कहलाता है। इसका अपर नाम गच्छाधिपति भी है। वर्तमान में गणि और गच्छाधिपति दोनों भिन्न-भिन्न अर्थों में व्यवहृत हैं। आचारांग चूर्णि के अनुसार जिनके पास आचार्य स्वयं सूत्र और अर्थ का अभ्यास करते हैं वह गणि है। __गणधर – गण को धारण करने वाला गणधर कहलाता है। आचारचूला एवं व्यवहारभाष्य (1375) की टीकानुसार जो आचार्य के समान है, आचार्य के आदेश से साधु संघ को लेकर पृथक् विचरण करते हैं, साध्वियों की देखभाल करते हैं तथा ज्ञान आदि की विराधना न करते हुए गण का परिवर्धन करते हैं, वह गणधर है।
गणावच्छेदक - गच्छ के कार्य का चिन्तन करने वाला अर्थात साधुसाध्वियों के उपधि आदि की व्यवस्था करने वाला मुनि गणावच्छेदक कहलाता है। गणावच्छेदक, मुनि जीवन के आवश्यक सामग्रियों की अन्वेषणा करता हुआ आचार्यादि को इन बाह्य चिन्ताओं से मुक्त रखते हैं तथा संघ की प्रत्येक अपेक्षाओं को पूर्ण करने में सदैव तत्पर रहते हैं। संघीय दायित्व की अपेक्षा आचार्य से इनका तीसरा स्थान होता है।
पण्डितपद - जो सार-असार का विवेक करने में सक्षम हो, वह पण्डित कहलाता है। तदनुसार सूक्ष्म प्रज्ञावान एवं बुद्धि-कौशल्य युक्त मुनि को पण्डितपद पर स्थिर किया जाता है। यह पद तपागच्छ परम्परा के कुछ समुदायों में प्रचलित है। इसे पंन्यास पद भी कहते हैं। ____ आचार्य देवेन्द्रमुनि के मतानुसार कुछ विशिष्ट श्रमण, जो आगम-ज्ञाता, आचार-सम्पन्न, विवेक-सम्पन्न एवं गम्भीर प्रकृति के धनी होते हैं उन्हें रात्निक या रत्नाधिक भी कहा जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में संघीय दायित्वों का सम्यक निर्वहन करने हेतु अनेक पदों का सृजन किया गया है।
जहाँ तक श्रमणी संघ की पद-व्यवस्था का सवाल है, वहाँ भगवान महावीर के शासनकाल पर्यन्त किसी भी पद का नाम निर्देश प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि चन्दनबाला को साध्वी प्रमुखा के रूप में स्थापित किया गया था।
यदि हम चौबीस तीर्थङ्करों के साधु-साध्वी की संख्या का तुलनात्मक अध्ययन करें तो यह बात निःसन्देह स्पष्ट हो जाती है कि श्रमणों की अपेक्षा