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________________ पदव्यवस्था एक विमर्श...3 उल्लेख है तो कहीं पर गणावच्छेदक के स्थान पर 'गीतार्थ' शब्द व्यवहृत हुआ है। यह स्पष्ट है कि आचार्य के अतिरिक्त जो भी अन्य पद निर्धारित किये गये, वे आचार्य को सहयोग प्रदान करने के रूप में ही थे। उनका लक्ष्य श्रमणश्रमणियों के अध्ययन, वर्षावास, विहार, वस्त्रादि उपकरण आदि की समुचित व्यवस्था करना था। दिगम्बर संघ में आचार्य एवं उपाध्याय पद का ही उल्लेख मिलता है। वर्तमान की श्वेताम्बर-परम्परा में गणधर एवं गणावच्छेदक को छोड़कर आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणि पद प्रवर्तित हैं और इसके अतिरिक्त पन्यास, पण्डित आदि पद अस्तित्व में भी आए हैं। आचार्य आदि पदों का सामान्य स्वरूप निम्न प्रकार है - आचार्य - जो स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं वे आचार्य कहलाते हैं। आचार्य छत्तीस गुणों से समन्वित एवं संघ के नायक होते हैं। तीर्थङ्कर की अनुपस्थिति में आचार्य ही संघ का उत्तरदायित्व वहन करते हैं। __ उपाध्याय - जैन संघ में उपाध्याय का दूसरा स्थान माना गया है। अध्यापक का अपर नाम उपाध्याय है। अत: उपाध्याय मुख्य रूप से पठनपाठन में तल्लीन रहते हैं। आचार्य अर्थ की वाचना देते हैं और उपाध्याय सूत्र की वाचना देते हैं। ये पच्चीस गुणों से युक्त एवं श्रुतरूपी सागर के आलोडर्न में निमग्न रहते हैं। प्रवर्तक - साधु-साध्वियों को सम्यक् रूप से सत्प्रवृत्तियों में जोड़ने वाले प्रवर्तक कहलाते हैं। यह पद, व्यवस्था और दायित्व की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखता है। प्रवर्तक का प्रमुख दायित्व होता है कि जो श्रमण जिस साधना में रूचि रखता हो, उसे तदनुरूप साधना में नियुक्त करना। ___स्थविर - जो मुनि स्वयं ज्ञान, दर्शन, चारित्र में स्थिर रहते हुए दूसरों को ज्ञानादि में सुस्थिर करता है, वह स्थविर कहलाता है। सामान्यतया जब कोई श्रमण समर्थ होते हुए भी प्रवर्तक द्वारा नियोजित कार्य में शिथिल हो जाता है, तब स्थविर मुनि उन्हें पुन: स्थिर करते हैं। इस प्रकार स्थविर शब्द स्थिरता का प्रतीक है।
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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