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अध्याय-1 पदव्यवस्था एक विमर्श भारतीय संस्कृति एक आध्यात्मिक संस्कृति है। पूर्वकाल से ही इसकी दो मुख्य धाराएँ रही हैं - 1. वैदिक संस्कृति और 2. श्रमण संस्कृति। वैदिक संस्कृति जहाँ प्रवृत्तिमूलक है वहीं श्रमण संस्कृति में निवृत्तिमार्ग को प्रधानता दी गई है। ___किसी भी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उसमें संगठनात्मकव्यवस्था का होना अनिवार्य है। इसी के साथ उसके उन्नयन हेतु आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना भी अत्यावश्यक है।
वैदिक संस्कृति लौकिक एवं बाह्य कर्मकाण्ड प्रधान होने से उसमें एक सुगठित संघ-व्यवस्था का अभाव देखा जाता है। यहाँ इहलौकिक एवं पारलौकिक सुख प्राप्ति के उद्देश्य से ही यज्ञ, बलि, देवार्चन आदि किया जाता हैं। मूलत: त्याग, संन्यास, मोक्ष जैसी अवधारणाएँ उसके प्रारम्भिक रूप में नहीं मिलती है। औपनिषदिक साहित्य में आत्मविद्या एवं संन्यास आदि के तत्त्व अवश्यमेव दृष्टिगत होते हैं, किन्तु विद्वानों के अनुसार वे परवर्तीकालीन है अत: वेदों में आध्यात्मिक संघ-व्यवस्था एवं उसके व्यवस्था पदों की कोई चर्चा प्राप्त नहीं होती है।
श्रमण संस्कृति तप- त्याग प्रधान संस्कृति है अत: इसका मूल लक्ष्य गृह त्याग कर संन्यास धर्म का पालन करना रहा है। इस संस्कृति की निर्वाहक जैन एवं बौद्ध दो परम्पराएँ हैं। इन दोनों परम्पराओं में धर्म संघ की समुचित व्यवस्था हेतु उसे चार भागों में विभाजित किया गया है। उनमें भी भिक्षु एवं भिक्षुणी संघ को श्रमण संस्कृति का आधार स्तम्भ माना गया। इसलिए इन दोनों में पद व्यवस्था का भी सूत्रपात हुआ।
जहाँ तक श्रमण संघ की पदव्यवस्था का प्रश्न है तो उसमें अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर के काल में गणधर पद की व्यवस्था ही देखी जाती है। उस युग में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि के नामोल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं। भगवान