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प्रवर्तिनी पदस्थापना विधि का सर्वांगीण स्वरूप...243 के अनुसार उचित कार्य का आदेश भी दे सकती है। इस प्रकार प्रवर्तिनी साध्वीगण के नेतृत्व के साथ-साथ तत्सम्बन्धी अन्य क्रियाकलापों को पूर्ण करने में भी अपनी भूमिका अर्जित करती है।
संक्षेपत: प्रवर्तिनी श्रमणी-संघ के संरक्षण का पूर्ण दायित्व अदा करती है तथा उस संघ में उसका आदेश अन्तिम और सर्वमान्य भी होता है। विविध दृष्टियों से प्रवर्तिनी पद की प्रासंगिकता
श्रमण धर्म में साध्वी समुदाय के संचालन की अपेक्षा प्रवर्तिनी पद का विशिष्ट महत्त्व है। प्रवर्तिनी पद से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि जिनशासन में पुरुष और स्त्री को समादर करते हुए स्त्रियों को भी उच्च पदों पर आसीन किया गया है।
प्रवर्त्तिनी पद का मनोवैज्ञानिक अनुशीलन किया जाए तो सर्वप्रथम तो प्रवर्तिनी पद के माध्यम से स्त्री एवं पुरुष वर्ग की असमानता के कारण उत्पन्न मानसिक तनाव कम होता है। स्त्रीत्व-सम्बन्धी कई समस्याएँ जो आचार्य के समक्ष नहीं रखी जा सकती उनका समाधान पाने तथा अन्य साध्वी मण्डल को मानसिक यातना से दूर रखने में उनकी अहम् भूमिका होती है। महिलाओं के हाथ में यदि कोई पद-व्यवस्था हो तो वे उसका निर्वाह अधिक श्रेष्ठता से कर सकती हैं, क्योंकि महिला जाति संवेदनशीलता, कोमलता, मातृत्वपना आदि प्रकृतिगत गुणों से अन्य की मनःस्थिति भापने में अधिक सक्षम होती हैं। ___ यदि प्रवर्तिनी पद का वैयक्तिक प्रभाव देखा जाए तो प्रवर्तिनी को आचार्य के समान माना गया है, अत: उनका प्रभाव एवं महत्त्व भी उन्हीं के समकक्ष है। प्रवर्तिनी के आचार कुशल होने से उसकी ख्याति फैलती है तथा असंक्लिष्ट चित्तयुक्त एवं प्रवचन प्रवीण होने से स्व-पर के क्लिष्ट भावों का दमन कर सकती है। इसी के साथ सहयोग, सामंजस्य आदि के भावों में वृद्धि होती है। सुयोग्य प्रवर्तिनी के समीप रहने से पारिवारिक जीवन में गाम्भीर्य, माधुर्य, औदार्य आदि गुण विकसित होते हैं।
प्रवर्तिनी पद का सामाजिक योगदान उल्लेखनीय है। सर्वप्रथम तो वह संघ संचालन में आचार्य का सहयोग करते हुए महिला क्षेत्र को अधिक विकसित कर सकती है। गच्छ में संगठन एवं अनुशासन रखते हुए साध्वियों को मर्यादा में रखती है तथा श्राविका समाज को धर्म एवं संयम में जोड़ती है जिससे पूर्ण