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230...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उपदेश करती हैं और उसके द्वारा प्रदत्त उपदेश बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त कराने वाला होता है। इस तरह के सामान्य कई प्रसंग देखे जा सकते हैं, किन्तु इससे अधिक कुछ लिखा गया हो, ऐसा जानकारी में नहीं है।
जब हम मध्यकालवर्ती साहित्य का पर्यावलोकन करते हैं तो विक्रम की 8वीं शती तक भी तद्विषयक विस्तृत चर्चा प्राप्त नहीं होती है।
इसके अनन्तर यह चर्चा सामाचारीसंग्रह, सामाचारीप्रकरण, तिलकाचार्य सामाचारी10, सुबोधासामाचारी1, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर13 आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होती हैं।
उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में इस पदस्थापन की विधि उल्लिखित है। परम्परागत सामाचारी के कारण इस विधि की कुछ प्रक्रियाओं में मतभेद हो सकता है, किन्तु मूल विधि सभी में समान रूप से कही गई है। आचारदिनकर में महत्तरा के कृत्य भी बताये गये हैं तथा स्वगच्छ और अन्य गच्छ में महत्तरापद से सम्बन्धित प्रचलित अवधारणाओं को भी स्पष्ट किया गया है। __ इस वर्णन से यह सुनिश्चित है कि पुरातनकाल से लेकर विक्रम की 8वीं शती तक प्रस्तुत पद के विषय में मात्र सामान्य उल्लेख ही प्राप्त होता है। इसके पश्चात 15वीं शती तक के ग्रन्थों में यह विधि स्पष्ट रूप से उपलब्ध होती प्राप्त है।
सर्वप्रथम महत्तरा पदारोहण की एक सुव्यवस्थित विधि विधिमार्गप्रपा में प्राप्त होती है। इसमें महत्तरा साध्वी को कहने योग्य शिक्षा वचनों का भी सम्यक् विवरण है। यद्यपि आचारदिनकर में भी यह विधि सुव्यवस्थित रूप से उल्लेखित है किन्तु विधिमार्गप्रपा इससे पूर्ववर्ती है अत: उसी के अनुसार महत्तरा पदस्थापना विधि प्रतिपादित करेंगे। महत्तरा पदस्थापना विधि
विधिमार्गप्रपा में महत्तरा पदस्थापना की विधि इस प्रकार निरूपित है14
किसी श्रेष्ठ दिन में महत्तरापद की स्थापना करें। उस दिन जिनालय, उपाश्रय या पवित्र स्थान में समवसरण की रचना करवाएं। महत्तरा पद ग्राही शिष्या लग्न दिन में प्रभातकाल का ग्रहण करें और स्वाध्याय की प्रस्थापना करें। उसके बाद पद ग्राही शिष्या समवसरण के निकट गुरु की बायीं ओर आसन बिछाएं।15