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________________ महत्तरापद स्थापना विधि का तात्त्विक स्वरूप...229 होने पर भी यदि अशुभ नक्षत्रादि में जन्मी हुई हो तो उसे महत्तरा पद के अयोग्य ही मानना चाहिए। महत्तरापद हेतु शुभाशुभ काल-विचार महत्तरापद का आरोपण किस मुहूर्त में किया जाना चाहिए? इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र चर्चा लगभग किसी भी ग्रन्थ में नहीं है। हाँ! सामाचारी प्रकरण, सुबोधा सामाचारी, विधिमार्गप्रपा आदि में इतना उल्लेख अवश्य है कि यह विधि शुभ तिथि, शुभ योग, शुभ नक्षत्र आदि में सम्पन्न करनी चाहिए, किन्तु शुभ नक्षत्र आदि कौन-कौन से हैं? इसका स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। यद्यपि आचारदिनकर में इस पद स्थापना हेतु आचार्य पदस्थापना विधि के समान शुभ नक्षत्र, तिथि, वार एवं लग्न आदि देखने का निर्देश किया गया है। महत्तरा आचार्य के लिए भी विशेष सम्माननीय होती है तथा आचार्य के सहयोगिनी के रूप में साध्वी-समुदाय का संचालन करती है। इसकी अपेक्षा आचारदिनकर का अभिमत सर्वथोचित प्रतीत होता है। अत: इस ग्रन्थ के अनुसार महात्तरा पद की स्थापना आचार्यपद स्थापना के योग्य शुभ दिनादि में करना चाहिए। महत्तरापद-विधि की अवधारणा का इतिहास __ श्रमणी संघ में प्राचीनकाल से ही इस पद की व्यवस्था रही है। जैन इतिहास में याकिनी महत्तरा आदि के अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिससे यह सूचित होता है कि पूर्वकाल में भी साध्वियों को महत्तरा पद से विभूषित किया जाता था। खरतरगच्छ आदि कुछ आम्नाय में आज भी यह पद यथावत रूप से प्रचलित है। यदि जैन धर्म के प्राचीन साहित्य का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि आगम में ‘महत्तरापद' का विस्तृत उल्लेख तो नहीं है फिर भी स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र आदि में इस शब्द का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु वह प्रधानता आदि की अपेक्षा से ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ ‘महत्तरा' शब्द प्रधान साध्वी के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। यदि आगमिक व्याख्या साहित्य का अनुशीलन करते हैं तो सर्वप्रथम इसका नामोल्लेख निशीथभाष्य में देखने को मिलता है। यहाँ महत्तरा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि वह मातृ वात्सल्य की भाँति स्नेहयुक्त होकर धर्म का
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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