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________________ अध्याय-9 महत्तरापद स्थापना विधि का तात्त्विक स्वरूप जैन धर्म की सामाजिक संरचना साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध संघ पर आधारित है। यह चतुर्विध संघ तीर्थ कहलाता है। तीर्थ की परम्परा अविच्छिन्न रूप से प्रवर्तित रहे, इस उद्देश्य से एक प्रशासनिक व्यवस्था का होना भी आवश्यक है। अत: जैन धर्म में जहाँ मुनि संघ की सुव्यवस्था हेतु आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य आदि पदों का विधान है, वहीं साध्वी संघ की समुचित व्यवस्था हेतु महत्तरा, प्रवर्त्तिनी, गणावच्छेदिनी जैसे पदों का प्रावधान है। यद्यपि आचार्य सकल संघ का निर्वहन करने में समर्थ होते हैं परन्तु उनके विस्तृत कार्यक्षेत्र एवं जिम्मेदारियों के सम्यक संचालन में सहयोगी मिलने पर उन कार्यों को और भी अधिक सुंदर रूप दिया जा सकता है। इसी के साथ स्त्री वर्ग की समस्याएँ एवं मानसिकता भी प्रायः पुरुष की समझ से परे होती है। कई बार मर्यादावश या संकोचवश हर बात आचार्य आदि के समझ कहना संभव नहीं होता। इसी तरह के कई तथ्यों को ध्यान में रखते साध्वी हुए के समुदाय उचित निर्देशन एवं श्राविका वर्ग के संचालन के लिए जिनशासन पद व्यवस्था में महत्तरा आदि पदों का गुंफन किया गया है। महत्तरा शब्द का अर्थ ‘महत्’+‘तरप्' इन दो शब्दों के संयोग से महत्तरा शब्द की रचना हुई है। 'महत्' शब्द विशेषण सूच और ‘तरप्’ प्रत्यय तुलनार्थक है । महत् के अनेक अर्थ हैं - बड़ा, वृद्ध, उत्तम, श्रेष्ठ आदि। तदनुसार महत्तर का अर्थ - विशिष्ठ, मुखिया, नायक, प्रधान आदि होता है। 1 संस्कृत-हिन्दी कोश में 'महत्तर' शब्द के अपेक्षाकृत बड़ा, विशाल, प्रधान, सबसे बड़ा व्यक्ति, सम्माननीय आदि अर्थ किये गये हैं। 2 महत्तर में टाप् प्रत्यय जुड़ने से स्त्रीवाचक महत्तरा शब्द बना है । इस प्रकार महत्तरा पद नायिका या प्रधान साध्वी का सूचक है। सामान्यतया प्रधान या मुखिया को महत्तरा कहते
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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