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206...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
अचलगच्छ पायछंदगच्छ आदि परम्पराओं में इस विषयक मौलिक या संकलित एक भी कृति देखने में नहीं आयी है परन्तु इनमें दीक्षा, उपस्थापना आदि अधिकांश विधि-विधान लगभग तपागच्छ आम्नाय के समान किये जाते हैं। इस अपेक्षा से कहा जा सकता है कि आचार्य पदस्थापना - विधि भी पूर्ववत ही सम्पन्न की जाती होगी ।
डॉ. सागरमलजी जैन के अभिमतानुसार स्थानकवासी - तेरापंथी इन परम्पराओं में मूर्तिपूजक परम्परा की भांति नन्दीरचना, देववन्दन, प्रदक्षिणा, नन्दी श्रवण, आसन समर्पण, अक्ष दान वगैरह कुछ भी विधि-प्रक्रियाएँ नहीं होती हैं। सामान्यतया शुभ लग्न में मुख्य गुरु या पूर्वाचार्य द्वारा सर्व संघ के समक्ष उस शिष्य के लिए यह घोषणा की जाती है कि 'अमुक मुनि को अमुक आचार्य के पट्ट पर स्थापित करते हैं तथा चतुर्विध संघ की अनुमति से उन्हें चद्दर ओढ़ायी जाती है। इसी के साथ वन्दन आदि का व्यवहार किया जाता है। तुलनात्मक विवेचन
पूर्व निर्दिष्ट आचार्य पदस्थापना - विधि का तुलनात्मक विवेचन आवश्यक है। यदि उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर इस विधि की मीमांसा की जाए तो पारस्परिक भेद-अभेद स्पष्ट हो जाता है।
मुहूर्त्त संबंधी - सामाचारीसंग्रह, सामाचारीप्रकरण, विधिमार्गप्रपा आदि में इस पद - विधि को शुभ मुहूर्त आदि में सम्पादित करने का निर्देश है, किन्तु वे शुभ दिन आदि कौनसे हैं ? इनका सूचन नहीं किया गया है जबकि आचारदिनकर में शुभ योग आदि की अपेक्षित चर्चा है। 153
वासाभिमन्त्रण संबंधी - सामाचारीसंग्रह में वासचूर्ण और आसन को वर्धमान विद्या से और स्थापनाचार्य को सूरिमन्त्र से अभिमन्त्रित करने का निर्देश है।154 तिलकाचार्य सामाचारी में अक्ष के रूप में देने योग्य वासचूर्ण को सात बार सूरिमन्त्र से अधिवासित करने का उल्लेख है। 155 आचारदिनकर में आचार्य पदस्थापना के दिन पहनाने योग्य नवीन वस्त्रों को गणिविद्या के द्वारा तथा वासचूर्ण को सूरिमन्त्र एवं निम्न सोलह मुद्राओं से संस्कारित करने का निर्देश किया गया है— 156
1. परमेष्ठीमुद्रा 2. कामधेनुमुद्रा 3 गरुड़मुद्रा 4. आरात्रिकमुद्रा 5. सौभाग्यमुद्रा 6. गणधरमुद्रा 7. अंजलिमुद्रा 8. मुक्तासुक्तिमुद्रा 9 यथाजातमुद्रा