SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...177 7. प्रयोगमति सम्पदा - विशाल संघ में रहते हुए अनेक समस्याएं उपस्थित होती रहती हैं। उनका यथासमय शीघ्र समाधान करने हेतु मतिसम्पदा और प्रयोगमतिसम्पदा का होना अत्यावश्यक है। साथ ही अन्य मत-मतान्तरों के सैद्धान्तिक विवाद या शास्त्रार्थ का प्रसंग होने पर भी उनका योग्य प्रतीकार करना आवश्यक होता है। इस स्थिति में बुद्धि, तर्क और श्रुत का प्रयोग धर्मप्रभावक होता है। अतः शास्त्रार्थ के समय श्रुत और बुद्धि के प्रयोग करने की कुशलता होना प्रयोगमतिसम्पदा है। प्रयोगमति सम्पदा के चार प्रकार निम्न हैं:0 (i) आत्म परिज्ञान - अपने सामर्थ्य को देखकर शास्त्रार्थ करने वाले हो। यानी शास्त्रार्थ में प्रवृत्त होने से पूर्व भलीभांति समझने वाला हो कि इस वाद में प्रवृत्त होना चाहिए या नहीं? सफलता प्राप्त होगी या नहीं? (ii) परिषद् परिज्ञान - उपस्थित सभा की योग्यता, रुचि, क्षमता आदि का ध्यान रखकर शास्त्रार्थ करने वाले हो जैसे- सभ्य लोग मुर्ख हैं या विद्वान? वे किस बात को पसन्द करते हैं आदि। ___ (iii) क्षेत्र परिज्ञान - जहाँ शास्त्रार्थ करना है उस क्षेत्र का सम्यक निर्धारण करने वाले हो, जैसे - अमक क्षेत्र में रुकना उचित है या नहीं ? यदि अधिक दिन रुकना पड़ जाये तो किसी तरह के उपसर्ग की सम्भावना तो नहीं है? आदि। (iv) वस्तु परिज्ञान - शास्त्रार्थ करते समय निर्णायक के रूप में स्वीकृत सभापति कौन हो सकता है, इसका ज्ञान रखने वाला हो। इसी के साथ प्रतिवादी अनेक आगमों का ज्ञाता है या नहीं, उसका मत क्या है ? उसके शास्त्र कौनसे हैं ? आदि का विचार करने वाले हो और सहवर्ती ग्लान, वृद्ध, तपस्वी आदि की समाधि का ध्यान रखकर तथा लाभालाभ की तुलना करके बुद्धि का प्रयोग करने वाले हो। ___8. संग्रहपरिज्ञा सम्पदा - विशाल शिष्य समुदाय की संयम आराधना यथाविधि हो सके, तदर्थ विचरण क्षेत्र, उपधि, आहारादि की सुलभता तथा अध्ययन आदि की समुचित व्यवस्था और संयम सामाचारी की देख-रेख सुव्यवस्थित होना परमावश्यक है। अत: वर्षावास वगैरह के लिए मकान, पट्टा, वस्त्र आदि का ध्यान रखकर आचार के अनुसार संग्रह करना संग्रहसम्पदा है।
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy