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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...173 (i) संयमध्रुवयोगयुक्तता - संयम धर्म की सभी क्रियाओं में योगों को सदैव स्थिर रखना, क्योंकि स्थिर योग में ही उन क्रियाओं का समुचित पालन हो सकता है। ___(ii) असंप्रग्रहिता - जाति, पद, श्रुत आदि का अहंकार नहीं करना। जैसे- मैं आचार्य हूँ, बहुश्रुत हूँ, तपस्वी हूँ- इस प्रकार के गर्व से मुक्त रहना, क्योंकि विनय से ही अन्य सभी गुणों का विकास होता है।
(iii) अनियतवृत्ति – एक स्थान पर दीर्घ समय तक नहीं रहना, अनियत विहारी होना। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के अनुसार गाँव में एक दिन तथा नगर में पांच दिन प्रवास करना, अलग-अलग मार्गों से भिक्षाचर्या करना। उपवास आदि तपस्या करना, अभिग्रह विशेष धारण करना भी अनियत वृत्ति है। इस सम्पदा का तात्पर्य यह है कि आचार्य के विचरण करने से धर्म प्रभावना अधिक होती है और वह आचार धर्म में स्थिर रह सकता है।
(iv) वृद्धशीलता – वृद्ध पुरुषों के समान गम्भीर स्वभाव वाला होना। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि में विशुद्धशीलता, अबालशीलता, अचंचलशीलता और मध्यस्थशीलता को वृद्धशीलता का पर्याय बतलाया है। आशय यह है कि लघुवय में भी आचार्य पद पर स्थित रहते हुए शान्त स्वभावी एवं दृढ़ संकल्पी होना।
2. श्रुत सम्पदा - आचार्य अनेक जीवों का श्रेष्ठ मार्गदर्शक होता है अत: उसे श्रुतज्ञान से सम्पन्न होना भी आवश्यक है। बहुश्रुत ही सर्वत्र निर्भय विचरण कर सकता है। श्रुतसम्पदा चार प्रकार की बतलायी गयी हैं-73
(i) बहुश्रुत - जिसने मुख्य शास्त्रों का अध्ययन किया हो, उनमें आगत पदार्थों को भली-भांति जान लिया है और उनका प्रचार करने में समर्थ हो, क्योंकि आगम ज्ञाता के चारित्र पर्याय बहुत निर्मल होते हैं।
(ii) परिचितश्रुत - जो सब शास्त्रों को जानता हो या सभी शास्त्र जिसे अपने नाम की तरह स्मरण में हो। जिसका उच्चारण शुद्ध हो और जो शास्त्राभ्यासी हो।
(iii) विचित्रश्रुत - जिसने अपने और दूसरे मतों को जानकर शास्त्रीय ज्ञान में विचित्रता उत्पन्न कर ली हो। जो सभी दर्शनों की तुलना करके भलीभांति कथन कर सकता हो। जो सुन्दर उदाहरणों से अपने व्याख्यान को मनोहर बना