________________
174... पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
सकता हो तथा श्रोताओं पर प्रभाव डाल सकता हो अथवा उत्सर्ग-अपवाद सूत्रों को जानने वाला हो।
(iv) घोषविशुद्धिश्रुत शास्त्र का उच्चारण करते समय उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, ह्रस्व, दीर्घ आदि स्वरों तथा व्यञ्जनों का पूरा ध्यान रखना घोषविशुद्धि है। इस प्रकार जिसका घोष विशुद्ध हों, वह घोष विशुद्धिश्रुत है। इसी तरह गाथा आदि का उच्चारण करते समय षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि स्वरों का भी पूरा ध्यान रखता हो, शिष्यों को स्पष्ट सूत्र उच्चारण का अभ्यास कराने में कुशल हो, क्योंकि उच्चारण की शुद्धि के बिना अर्थ की शुद्धि नहीं होती है और उसके अभाव में सर्व क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।
3. शरीर सम्पदा शरीर का प्रभावशाली एवं सुगठित होना शरीरसम्पदा है। ज्ञान और क्रिया भी शारीरिक सौष्ठव होने पर ही प्रभावक हो सकते हैं, रूग्ण या निर्बल शरीर धर्म - प्रभावना में सहायक नहीं होता है। इसके भी चार भेद हैं74_
(i) आरोह परिणाह - जिनके शरीर की ऊँचाई और चौड़ाई प्रमाणयुक्त हो, अति लम्बा या अति बौना तथा अति दुर्बल या अति स्थूल न हो । (ii) अनपत्रप शरीर के सभी अंगोपांग सुव्यवस्थित हों अथवा सभी अंग पूर्ण हो, कोई अंग अधूरा या बेडौल न हो जैसे - काना आदि । (iii) स्थिरसंहनन - शरीर का संगठन स्थिर एवं सुदृढ़ हो, ढीलाढाला
न हो ।
(iv) प्रतिपूर्णेन्द्रिय - सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हों, पूर्ण शरीर सुगठित हो, आंख-कान आदि में विकलता न हो ।
4. वचन सम्पदा धर्म के प्रचार-प्रसार में वाणी भी प्रमुख साधन है अतः आचार्य के लिए वचनसम्पदा का होना अत्यन्त आवश्यक है। मधुर, प्रभावशाली और आदेय वचन वाला होना वचनसम्पदा है।
-
-
वचनसम्पदा चार प्रकार की निर्दिष्ट हैं 75_
(i) आदेय वचन जिसके वचन सभी के लिए ग्राह्य हो । चूर्णि के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं
(ii) मधुर वचन
1. अर्थयुक्त वचन 2. अपरुष वचन - मृदु वचन 3. क्षीरास्रव आदि लब्धियों से युक्त वचन अर्थात जो सारगर्भित और मधुरभाषी हो, निरर्थक या मोक्षमार्ग निरपेक्ष वचन न बोलते हो ।
-
-