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172...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
(i) धर्मप्रचार आदि के द्वारा नये-नये शिष्यों की वृद्धि हो, इस तरह प्रयत्न करना।
(ii) नवीन दीक्षित शिष्यों को आचारविधि का ज्ञान कराने में और शुद्ध आचार का अभ्यास कराने में प्रवृत्त रहना।
(iii) सहवर्ती मुनियों में जब जिसको सेवा की आवश्यकता हो, तब स्वयं मनोयोगपूर्वक उनकी सेवा करना।
(iv) श्रमणों में परस्पर कलह या विवाद हो जाये तो उसका निष्पक्ष भाव से निराकरण करना तथा इस तरह की व्यवस्था या उपाय करना कि सहवर्ती साधुओं में कलह आदि होने की सम्भावना ही न बने और उन साधु-साध्वियों की संयमयात्रा उत्तरोत्तर प्रवर्द्धित होती रहे।'
इस प्रकार गच्छ हित के कार्य करने वाला, आचार्य के आदेशों का पालन करने वाला एवं चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति करने वाला शिष्य घनीभूत कर्मों की निर्जरा करता हुआ सुगति को प्राप्त होता है अतः प्रत्येक शिष्य को निर्दिष्ट कर्तव्यों का परिपालन अवश्य करना चाहिए। इससे अन्य भी अनेक सुफल प्राप्त होते हैं। आचार्य पद का अधिकारी कौन?
दशाश्रुतस्कन्ध में आचार्य को 'गणि' कहा गया है। साधु समुदाय को गण कहते हैं। जो गण के अधिपति होते हैं वे गणि कहलाते हैं। वर्तमान में गणि, गच्छाधिपति एवं आचार्य तीनों ही पृथक-पृथक पद हैं। ___आचार्य की आठ सम्पदाएँ मानी गयी हैं।70 वस्तुत: आचार्य के गुण समूह को सम्पदा कहते हैं। गणि (आचार्य) को उन गुणों से पूर्ण होना चाहिए क्योंकि बिना गुणों के वह गण की रक्षा नहीं कर सकता है और गण की रक्षा करना उनका प्रमुख कर्त्तव्य है। अतएव उन्हें आठ सम्पदाओं से युक्त होना आवश्यक है। इन गुणों से युक्त मुनि गणि पद के योग्य होता है। जैन-साहित्य में वे गुण 'गणिसंपदा' के नाम से उल्लिखित हैं। उनका सामान्य स्वरूप निम्न प्रकार है।1
1. आचार सम्पदा 2. श्रुत सम्पदा 3. शरीर सम्पदा 4. वचन सम्पदा 5. वाचना सम्पदा 6. मति सम्पदा 7. प्रयोगमति सम्पदा 8. संग्रहपरिज्ञा सम्पदा।
1. आचार सम्पदा - सर्वप्रथम आचार्य का आचार-सम्पन्न होना आवश्यक है, क्योंकि आचार शुद्धि से ही व्यवहार शुद्ध होता है। आचार सम्पदा चार प्रकार की कही गयी है/2