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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...171
आचार्य के प्रति शिष्य के कर्त्तव्य
दशाश्रुतस्कन्ध में आचार्य (गणी) और गण के प्रति योग्य शिष्य के प्रमुख चार कर्त्तव्य प्रतिपादित हैं, जो निम्न हैं 9
1. उपकरण उत्पादन संयम उपयोगी वस्त्र - पात्र आदि प्राप्त करना उपकरण उत्पादन है। उपकरण उत्पादन चार प्रकार का प्रज्ञप्त है
(i) गवेषणा करके वस्त्र - पात्र आदि नवीन उपकरणों को प्राप्त करना । (ii) प्राप्त उपकरणों को सुरक्षित रखना ।
(iii) जिस मुनि को जिस उपधि की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति करना । (iv) शिष्यों के लिए यथायोग्य उपकरणों का विभाग करके देना अथवा जिसके योग्य जो उपधि हो उसे वही देना।
करना।
2. सहायक होना अशक्त साधुओं की सहायता करना सहायक विनय नामक गुण है। सहायक विनय चार प्रकार का होता है -
(i) गुरु के अनुकूल वचन बोलने वाला होना अर्थात जो गुरु कहे उस आदेश को 'तहत्ति' कहते हुए विनयपूर्वक स्वीकार करना ।
(ii) गुरु के अनुकूल अथवा जैसा गुरु कहे वैसी प्रवृत्ति करने वाला होना । (iii) गुरु की पगचम्पी आदि सेवा कार्य विवेक पूर्वक करना।
(iv) सभी कार्यों में गुरु इच्छा के अनुकूल व्यवहार करना ।
3. वर्ण संज्वलनता- गुणानुवाद गण और गणी के गुण प्रकट करना गुणानुवाद है। विनय चार तरह से होता है गुणानुवाद (i) आचार्य आदि के गुणों की प्रशंसा करना ।
(ii) अवर्णवाद, निन्दा या असत्य आक्षेप करने वाले को उचित प्रत्युत्तर देकर निरुत्तर करना ।
(iii) आचार्य आदि की गुण प्रशंसा करने वालों को धन्यवाद देकर उत्साहित करना अथवा उनका गुण कीर्तन कर उनका यश फैलाना।
(iv) ज्येष्ठ या वृद्धों की सेवा - भक्ति करते हुए उनका यथाशक्ति आदर
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4. भार- प्रत्यारोहण
आचार्य के कार्यभार को सम्भालना अथवा गण के भार का निर्वाह करना भार- प्रत्यारोहण विनय है। इस विनय के चार प्रकार हैं