________________
170...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
(iii) च्युतधर्म का धर्म में स्थापन किसी शिष्य की संयम धर्म से अरुचि हो जाये या दर्शन (धर्म श्रद्धा) से भ्रष्ट हो जाये तो उसे विवेकपूर्वक उसी धर्म में स्थापित करना।
(iv) धर्म अभ्युद्यत - संयम धर्म में स्थित शिष्य के हित के लिए, सुख के लिए, सामर्थ्य के लिए, मोक्ष के लिए और भवान्तर में भी धर्म की प्राप्ति हो, इसके लिए सदैव तत्पर रहना ।
4. दोषनिर्घातना विनय - दोष का अर्थ है - कर्मबंध के हेतु कषाय आदि, निर्घातना का अर्थ है - पूर्णतः समाप्त करना। शिष्यों का समुचित रूप से पालन करते हुए भी छद्मस्थ अवस्था के कारण कोई कषायों के वशीभूत होकर किसी दोष विशेष का पात्र हो सकता है अतः सम्यक शिक्षा द्वारा शिष्य के कषाय-कांक्षा आदि को दूर करना दोषनिर्घातन विनय है । दोषनिर्घातना के चार उपाय हैं 67_
(i) क्रोधविनय - अपने शीतल स्वभाव से वंजुल वृक्ष की भांति क्रोधी शिष्य के क्रोध को दूर करना ।
राग
(ii) दोषनिग्रहण जो शिष्य कषाय और विषयों से दूषित हो उसके - द्वेषात्मक परिणति का तटस्थता पूर्वक उपशमन या निवारण करना । (iii) कांक्षाविच्छेद जो शिष्य भक्तपान, परसिद्धान्त, उपधि आदि अनेक प्रकार की आकांक्षाओं के अधीन हैं उनकी कांक्षायुक्त भावनाओं को उचित उपायों से दूर करना ।
(iv) सुप्रणिहित आत्मा शिष्यों का समुचित निर्वाह करते हुए भी अपनी आत्मा को संयम गुणों में स्थिर रखना । जब गुरु राग-द्वेष - कांक्षा में वर्तन नहीं करते हैं तब वे सुप्रणिधान से युक्त होते हैं तथा ऐसे आचार्य के निश्रागत शिष्य ही उपगृहीत होते हैं।
-
-
समाहारतः जो राजा ऐश्वर्य सम्पन्न हो वही प्रजापालक और यशस्वी होता है वैसे ही जो आचार्य शिष्य समुदाय के आवश्यक कर्त्तव्यों का परिपालन करते हुए संयम की आराधना करते हो वे शीघ्र मोक्ष गति को प्राप्त करते हैं। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि जो आचार्य या उपाध्याय सम्यक प्रकार से गण की परिपालना करते हैं वे उसी भव में या दूसरे-तीसरे भव में निश्चित रूप से मुक्ति प्राप्त करते हैं।8 आचार्य के उक्त कर्त्तव्य स्व-पर उभय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं एवं संघ के अभ्युदय में सहायक होते हैं।