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148...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में 28. साध्वी वर्ग के संसर्ग से दूर रहने वाला 29. निरन्तर धर्मोपदेश करने वाला 30. सतत ओघ सामाचारी की प्ररूपणा करने वाला 31. साधु मर्यादा में रहने वाला 32. सामाचारी का पालक 33. शिष्य को आलोचना योग्य प्रायश्चित्त कराने में समर्थ 34. वन्दन- प्रतिक्रमण- स्वाध्याय- व्याख्यान- आलोचनाउद्देश और समुद्देश आदि सात समूहों की विराधना के जानकार 35. द्रव्य-क्षेत्रकाल और भाव के अन्तर को जानने वाले 36. द्रव्य- क्षेत्र- काल और भावादि आलम्बन से विमुक्त 37. घनी केशराशियुक्त 38. वृद्ध, शैक्ष साधु-साध्वी को मोक्षमार्ग की ओर प्रवर्तन करने में कुशल 39. ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूपी रत्नत्रय की प्ररूपणा करने वाले 40. चरण और करण गुण के धारक 41. ज्ञानादि रत्नत्रय में निरत 42. दृढ़ सम्यक्त्वी 43. सतत परिश्रमी 44. धैर्यवान 45. गम्भीर 46. अतिशयवान 47. तपरूपी तेज से दूसरों के द्वारा पराजित न होने वाले 48. दान-शील-तप और भावना रूपी चतुर्विध धर्म में उत्पन्न विघ्नों को दूर करने वाला 49. सभी तरह की आशातनाओं से दूर रहने वाले 50. ऋद्धि-रस-सुख आदि तथा आर्त्त-रौद्र ध्यानों से अत्यन्त मुक्त 51. आवश्यक क्रियाओं में उद्यत 52. विशेष लब्धियों से युक्त 53. अल्प निद्रालु 54. अल्पभोजी 55. सभी आवश्यक, स्वाध्याय, ध्यान, अभिग्रह आदि में अत्यन्त परिश्रमी 56. परीषह और उपसर्ग में सहिष्णु 57. योग्य शिष्य को संगृहीत करने में कुशल 58. अयोग्य शिष्य का परिहार करने में समर्थ 59. दृढ़ संघयण 60. स्व-पर शास्त्रों का मर्मज्ञ 61. क्रोध- मान- माया- लोभ आदि अहितकारी प्रवृत्तियों से दूर रहने वाले 62. विषयाभिलाषी व्यक्ति को धर्मोपदेश द्वारा वैराग्य उत्पन्न कराने में समर्थ 63. प्रतिबोध द्वारा भव्य जीवों को गच्छ में सुस्थित करने वाले इत्यादि गुणयुत होते हैं।23। ___ अध्याहारत: जैसे एक दीपक सैकड़ों दीपों को प्रज्वलित करता हुआ स्वयं भी प्रदीप्त रहता है वैसे ही आचार्य स्वयं के विशुद्ध ज्ञान के आलोक से दूसरों को आलोकित करते रहते हैं और स्वयं भी आलोकित रहते हैं।24
उपर्युक्त वर्णन में हमने पाया कि जैनाचार्यों ने आचार्य के भिन्न-भिन्न लक्षण निरूपित किये हैं यद्यपि उनमें परस्पर बहुत कुछ साम्य है।