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________________ आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...149 आचार्य के शास्त्रोक्त गुण जैन शास्त्रों में आचार्य को छत्तीस गुणों से युक्त माना गया है अत: उनके जीवन में निम्न 36 गुण होना आवश्यक है - (1-5) पाँच इन्द्रियों पर संयम रखना (6-14) नव ब्रह्मचर्य गप्तियों का पालन करना (15-18) क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह करना (19-23) अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का पालन करना (24-28) ज्ञानाचार आदि पंच आचार का परिपालन करना (29-33) ईर्या आदि पांच समिति को धारण करना तथा (33-36) तीन गुप्तियों का आचरण करना। ___ इन छत्तीस गुणों के अतिरिक्त आचार्य में अन्य अनेक विशेषताएँ भी होती है। आचार्य हेमतिलकसूरि ने 'गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्विंशिका बालावबोध' में आचार्य के छत्तीस गुणों का वर्णन प्रकारान्तर से किया है। इसे छत्तीस छत्तीसी कहते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी इस सम्बन्ध में नवपदपूजा में कहा है कि 'वर छत्तीस गुणेकरी सोहे, युग प्रधान जन मोहे' अर्थात आचार्य श्रेष्ठ 36 गुणों से परिपूर्ण होते हैं।25 यहाँ छत्तीस-छत्तीसी का अभिप्राय 36x36 = 1296 गुणों से है। इन छत्तीसियों की गणना निम्न प्रकार जाननी चाहिए26 - 1.) चार प्रकार की देशना, चार प्रकार की कथा, चार प्रकार का धर्म, चार प्रकार की भावना, चार प्रकार की स्मारणा (सारणादि), चार प्रकार के ध्यान और इन प्रत्येक के चार-चार भेद के ज्ञाता ऐसे (4x4 = 16, 4 + 4 + 4 + 4 + 4 + 16 = 36) गुण को धारण करने वाले हैं। 2.) पांच सम्यक्त्व, पांच चारित्र, पांच महाव्रत, पांच व्यवहार, पांच आचार, पांच समिति, पांच स्वाध्याय, एक संवेग, ऐसे (5+5+5+5+5+5+5+1 = 36) गुण को धारण करने वाले हैं। 3.) पांच इन्द्रिय, पांच इन्द्रिय के विषयों के ज्ञाता, पांच प्रमाद, पांच आस्रव, पांच निद्रा, पांच संक्लिष्ट भावना के त्यागी, षट्जीव निकाय के रक्षक ऐसे (5+5+5+5+5+5+6 = 36) गुण के धारक हैं। 4.) छह वचन दोष, छह लेश्या, छह आवश्यक, छह द्रव्य, छह दर्शन, छह भाषा के ज्ञाता ऐसे (6+6+6+6+6+6 = 36) गुण के धारक हैं। 5.) सात भय, सात पिण्डैषणा, सात पात्रैषणा, सात सुख, आठ मद के
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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