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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप... .145
• भगवती आराधना के निर्देशानुसार जो मुनि पाँच प्रकार के आचार का निरतिचार पालन करते हुए दूसरों को भी पंचाचार में प्रवृत्त करता है तथा शिष्यों को आचार पालन का उपदेश देता है, वह आचार्य है। 14
• नियमसार में पाँच आचारों से परिपूर्ण, पंचेन्द्रिय रूपी हाथी के मद का दलन करने वाले, धीर और गुण गम्भीर मुनि को आचार्य कहा है। 15
• सर्वार्थसिद्धि के अनुसार जिसके निमित्त से शिष्यगण व्रतों का आचरण करते हैं वह आचार्य हैं। 16
• धवला टीकाकार के मतानुसार जिनकी बुद्धि प्रवचनरूपी समुद्र के मध्य में स्नान करने से निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रूप से छह आवश्यक का पालन करते हैं, मेरू के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंहवत निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्य स्वभावी हैं, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं, आकाश की भाँति निर्लेप हैं, संघ के संग्रह ( दीक्षा) और निग्रह (शिक्षा या प्रायश्चित्त देने) में कुशल हैं, सूत्र के अर्थ में विशारद हैं, विश्वव्यापी कीर्ति वाले हैं, सारण (आचरण), वारण (निषेध) और साधन अर्थात व्रतरक्षण की क्रियाओं में निरन्तर उद्यमवन्त हैं, चौदह विद्या स्थानों में पारंगत हैं, आचारांग आदि अंगों के धारक हैं, स्व- पर सिद्धान्त में निपुण हैं, मेरू सम निश्चल हैं, पृथ्वी सम सहिष्णु हैं और सप्त भयों से रहित हैं वे सही अर्थों में आचार्य कहलाने योग्य हैं। 17.
• पंचाध्यायी के अनुसार जो मुनि अन्य संयमियों से पाँच प्रकार के आचारों का आचरण करवाता है अथवा व्रत खण्डित होने पर पुनः प्रायश्चित्त द्वारा उस व्रत में स्थिर होने के इच्छुक साधु को प्रायश्चित्त देता है, वह आचार्य कहलाता है। 18
समाहारतः जो स्वयं पाँच आचारों का पालन करते हैं और दूसरों से आचार का पालन करवाते हैं, जो शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देते हैं, तीर्थङ्कर के प्रतिनिधि होते हैं तथा नमस्कार महामन्त्र में तीसरे पद के वाचक हैं, वे आचार्य कहलाते हैं।
जैन साहित्य में आचार्य के लक्षण
सामान्यतया जो आचार कुशल होते हैं, वे आचार्य कहे जाते हैं। व्यवहारभाष्य में आचारकुशल का विस्तृत अर्थ प्रतिपादित है। तदनुसार जो