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144...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अन्यों से करवाते हैं तथा आगम सूत्रों के अध्ययन-अध्यापन द्वारा बुद्धि को परिमार्जित एवं परिष्कृत करते हैं वे आचार्य हैं।
• भगवतीटीका में आचार्य का स्वरूप विश्लेषित करते हुए कहा गया है कि जो सूत्र-अर्थ का ज्ञाता, आचार्य के लक्षणों से संयुक्त और गच्छ का आधारस्तम्भ होता है तथा स्वयं ताप से मुक्त होते हुए अधीनस्थ संघ को सन्ताप . से मुक्त करते हैं और शिष्यों को अर्थ का मर्म समझाते हैं, वह आचार्य है।
• संस्कृत-हिन्दी कोश के अनुसार आचार्य आध्यात्मिक गुरु है, जो अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करते हैं। वे विशिष्ट ग्रन्थों के ज्ञाता होते हैं।
• बृहत्कल्पभाष्य में आचार्य योग्य मुनि का स्वरूप दर्शाते हुए कहा है जिसने निशीथचूला का सूत्रतः पूर्ण अध्ययन कर लिया हो, गुरु के समीप उसके अर्थ को ग्रहण कर चुका हो, परावर्त्तना और अनुप्रेक्षा द्वारा सूत्रार्थ का सम्यक अभ्यास कर लिया हो, विधि-निषेध के विधान में कुशल हो, पंचमहाव्रत एवं छ8 रात्रिभोजन विरमण-व्रत में जागरूक हो वह आचार्य पद के योग्य होता है।
• व्यवहारभाष्य में आचार्य का योग साधना प्रधान अर्थ करते हुए निर्दिष्ट किया गया है कि जो ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्रयोग को सम्प्राप्त हो तथा इस योगत्रयी की शुद्धि करने वाला हो, वह आचार्य है।
• आवश्यकनियुक्ति के अभिमतानुसार जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य का अनुपालन करते हैं, उसके अनुरूप अर्थ की व्याख्या करते हैं और दूसरों को आचार की क्रियाओं का सक्रिय प्रशिक्षण देते हैं, वे आचार्य हैं।
• दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि के अनुसार जो सूत्र, अर्थ और तदुभय का ज्ञाता है तथा अपने गुरु प्रदत्त पद पर स्थापित है, वह आचार्य है।10
• दशवैकालिक जिनदासचूर्णि में जो शिष्य सूत्रार्थ का ही ज्ञाता है किन्तु गुरु द्वारा पद पर स्थापित किया गया है उसे भी आचार्य कहा गया है।11
• दशवैकालिक टीका के अनुसार सूत्र-अर्थ के ज्ञाता अथवा गुरुस्थानीय ज्येष्ठ मुनि आचार्य कहलाते हैं।12
• विद्वत परिभाषा के अनुसार जो सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रों के अर्थ का मननपूर्वक संचयन अथवा संग्रहण करते हैं, निरतिचार आचार का सम्यक अनुपालन करते हैं और धर्म संघ को आचार में स्थापित करते हैं, वे आचार्य कहे जाते हैं।13