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________________ अध्याय-8 आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप जैन धर्म का मूलमन्त्र पंचपरमेष्ठी का वाचक है। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं। अरिहन्त और सिद्ध देवस्थानीय हैं तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरुस्थानीय हैं। इस पंचम काल में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में तीर्थङ्कर (अरिहन्तदेव) का साक्षात अभाव होने से आचार्य को तीर्थङ्कर के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार किया जाता है। आचार्य धर्म संघ रूप नौका के नायक होते हैं। जिस प्रकार खेत खलियान के बीच गड़ी हुई खूटी के सहारे बैल निर्भीक होकर घूमते रहते हैं उसी प्रकार आचार्य धर्म संघ के मेढ़ीभूत (केन्द्र के समान) आलम्बन रूप होते हैं। आचार्य शब्द का अर्थ एवं विभिन्न परिभाषाएँ • आचार्य शब्द आ+चर+ण्यत - इन तीन पदों के संयोग से व्यत्पन्न है। 'आ' उपसर्ग मर्यादाबोधक और 'चर्' धातु गत्यार्थक है। इसका फलितार्थ है कि सम्यक प्रकार से आचरण करने वाला, मर्यादा एवं यतना पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला अथवा आचार मार्ग का अनुसरण करने वाला महामुनि आचार्य कहलाता है। • आचार्य शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ है - जिनके द्वारा जिनशासन (धर्मसंघ) की अभिवृद्धि के लिए विनय आदि गण रूप आचार का सम्यक आचरण किया जाता है वह आचार्य है।2 . जिनके द्वारा आगम सूत्रार्थ का अवबोध करने के लिए सम्यक आचरण किया जाता है और मोक्षाभिलाषी साधकों के द्वारा तद्प आचरण करवाया जाता है वह आचार्य है। • आचार्य का सामान्य अर्थ है - आचारनिष्ठ। जो स्वयं आचारयुक्त हों और अपने निश्रावर्ती एवं अनुयायीवृन्द को आचार सम्पन्न करते हों। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो जो स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं, जो स्वयं शास्त्रों के यथार्थ का अनुशीलन करते हैं और
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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