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132...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
उपर्युक्त विधि से यह अवगत होता है कि प्रेमसूरि समुदायवर्ती तपागच्छ परम्परा में नूतन उपाध्याय को दो कंबल परिमाण का आसन नहीं दिया जाता है और एक पाठ अतिरिक्त बोलते हैं, शेष विधि लगभग समान है। ___ अचलगच्छ, पायच्छन्दगच्छ, त्रिस्तुतिकगच्छ आदि एवं स्थानकवासी, तेरापंथी आदि परम्पराओं में यह पदस्थापना किस विधि पूर्वक की जाती है? तत्सम्बन्धी प्रामाणिक सामग्री प्राप्त नहीं हो पायी है। सम्भवत: मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की अन्य परम्पराएँ तपागच्छ सामाचारी का ही अनुसरण करती हैं।
दिगम्बर परम्परा में उपाध्याय पदस्थापना की निम्न विधि है-74
सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त में पददाता गुरु गणधरवलय (मन्त्रपट्ट) और द्वादशांगी (श्रुतआगम) की पूजा करवाएँ। उसके बाद स्वच्छ भूमि पर चन्दन रस के छींटे देकर वहाँ अक्षतों से स्वस्तिक करें। फिर उस स्थान पर एक पट्टा (चौकी) की स्थापना करें। फिर उपाध्यायपद योग्य शिष्य को उस चौकी पर पूर्वाभिमुख करके बिठाएं। तदनन्तर 'उपाध्यायपदस्थापनं क्रियायां पूर्वाचार्येति' यह पद कहकर सिद्धभक्ति एवं श्रुतभक्ति का पठन करें। उसके बाद गुरु आह्वान योग्य मन्त्रों का उच्चारण कर उस मुनि के मस्तक पर लवंग-पुष्पअक्षत का क्षेपण करें।
आह्वान मन्त्र यह है - "ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं, उपाध्याय परमेष्ठिन् अत्र एहि एहि संवौषट् आह्वाननं, स्थापनं, सन्निधि करणं।" ।
तत्पश्चात् उपाध्याय पदग्राही शिष्य के मस्तक पर निम्न मन्त्र का चन्दन से न्यास (आलेखन) करें - "ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं, उपाध्याय परमेष्ठिने नमः"
तदनन्तर शिष्य शान्तिभक्ति एवं समाधिभक्ति पढ़ें। फिर गुरुभक्ति पढ़कर गुरु का वन्दन करे और गुरु आशीर्वाद प्रदान करें। तुलनात्मक विवेचन
जिनमत में उपाध्याय का गौरवपूर्ण स्थान है। जब हम पूर्व विवेचित उपाध्याय पदस्थापना-विधि की तुलनात्मक मीमांसा करते हैं तो इसके सम्बन्ध में सामाचारीसंग्रह, प्राचीनसामाचारी, तिलकाचार्य सामाचारी, सुबोधासामाचारी, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि रचनाएँ उपयोगी सिद्ध होती हैं। इन ग्रन्थों में उपाध्याय-विधि सम्यक् रूप से कही गई है। उनके आधार से तुलनात्मक परिणाम निम्नानुसार है -