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122...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
• आलोचना – संघाटक मुनि भिक्षा ग्रहण करने के बाद गुरु के समीप आकर आलोचना करते हैं। यदि उस समय गुरु अध्ययनरत हो तो सम्यक् आलोचना के अभाव में चरणहानि होती है।
• प्रतिपृच्छा - अनेक शिष्यगण साथ में हों तो सभी की प्रतिपृच्छा का प्रत्युत्तर देना आवश्यक होता है।
• वादि ग्रहण - बहुश्रुत आचार्य के पास अन्यदर्शनी विद्वान् बहुत आते हैं उनके प्रश्नों का समाधान करना होता है, अन्यथा जिनधर्म की प्रभावना नहीं होती।
• रोगी आदि - बड़े समुदाय में कई साधु अस्वस्थ हो जाते हैं तो उनकी सार सम्भाल करना प्राथमिक कर्त्तव्य बन जाता है। इससे सूत्र व्याघात होता है।
• दुर्लभ भिक्षा - क्षेत्र छोटा और साधु अधिक हों तो भिक्षा के लिए दूरवर्ती घरों में भेजने की व्यवस्था करनी होती है।
• नया सीखा हुआ नवें-दसवें पूर्व का ज्ञान सतत स्मरण के बिना विस्मृत हो जाता है।
अतएव विशाल गच्छ में रहते हुए नवें-दसवें पूर्व का स्मरण, योनिप्राभृत आदि ग्रन्थों का गुणन, आकाशगमन आदि विद्याओं का परावर्तन, मन्त्र-योग आदि का अभ्यास और छेदसूत्रों का परावर्तन करना दुष्कर हो तो आचार्यउपाध्याय को एक-दो साधु के साथ ही रहना चाहिए, क्योंकि इन सबका अभ्यास एकान्त में सुखपूर्वक हो सकता है। ___ आचार्य-उपाध्याय को एकाकी विचरण या वर्षावास करने का इसलिए निषेध किया गया है कि ये संघ के प्रतिष्ठित एवं जनमान्य पदवीधर होते हैं अत: लब्धिसम्पन्न एवं परिपक्व होने के बाद भी इनका अकेले विहार आदि करना संघ के लिए शोभाजनक नहीं होता है। उपाध्याय पदस्थापना हेतु शुभ मुहूर्त विचार
उपाध्याय योग्य शिष्य की पदस्थापना कौनसे मुहूर्त आदि में की जानी चाहिए? इस विषय में स्वतन्त्र उल्लेख तो पढ़ने में नहीं आए हैं। यद्यपि आचार्य जिनप्रभसूरि के संकेतानुसार जिस शुभ योग (मुहूर्त) में वाचनाचार्य की पद स्थापना की जाती है उसी शुभ मुहूर्त के आने पर उपाध्याय की पद स्थापना करनी चाहिए क्योंकि विधिमार्गप्रपाकार ने उपाध्याय पदस्थापना-विधि को