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गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप... 101
गणानुज्ञा पद के सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि गणाचार्य को पूर्वपदों की भांति वर्द्धमानविद्या या सूरिमन्त्र पट्ट, कंबल परिमाण आसन, अक्ष आदि नहीं दिये जाते हैं क्योंकि यदि अनुयोग अनुज्ञा प्राप्त शिष्य को गणाचार्य पद पर स्थापित किया जाये, तब तो उसके लिए मन्त्रदान आदि की क्रिया पहले ही कर दी जाती है, दुबारा करना आवश्यक नहीं है। कदाच् सामान्य गुणवान साधु को गण के नेतृत्व की अनुज्ञा दी जाये, तो वह प्रज्ञाबल एवं स्वलब्धि से सब कुछ संगृहीत एवं मन्त्र आदि को सिद्ध कर लेता है। जहाँ तक शक्य हो, पूर्वाचार्य को ही गणाचार्य पद पर आसीन किया जाता है। सम्भवत: इसी अपेक्षा से आसनदान, मन्त्रश्रवण आदि का निर्देश नहीं किया गया है।
यदि हम विविध परम्पराओं की दृष्टि से गणानुज्ञा - विधि का तुलनीय पक्ष देखें तो ज्ञात होता है कि प्रस्तुत विधि पंचवस्तुक एवं प्राचीनसामाचारी में कही गई और ये दोनों ग्रन्थ किसी सम्प्रदाय से सम्बद्ध नहीं है।
दिगम्बर - साहित्य में यह विधि देखने को नहीं मिली है। वैदिक परम्परा में इस तरह के पद का ही अभाव है। बौद्ध साहित्य में 'गणिनी' पद के उल्लेख स्पष्ट रूप से हैं, इस अपेक्षा गणिपद की व्यवस्था भी होनी ही चाहिए।
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निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गणानुज्ञा जैसी पदव्यवस्था जैन धर्म पुरातनकाल से प्रचलित रही है। भगवान महावीर के शासनकाल में गणिगणधर पद के स्पष्ट प्रमाण हैं । जहाँ तक पद देने की विधि का प्रश्न है वह मध्यकालीन ग्रन्थों में पायी जाती है। खरतरगच्छीय आचार्य जिनप्रभसूरि ने अन्य ग्रन्थकारों की तुलना में इस विधि को अधिक स्पष्टता के साथ कहा है। उपसंहार
गणिपद श्रमणसंघ की सुदृढ़ व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण पद है। जब मूलगुरु (गच्छनायक) दीक्षा, उपस्थापना, योगोद्वहन, प्रतिष्ठा आदि शासन प्रभावना के कार्यों को यथोचित रूप से सम्पादित करते हुए अपनी आयु को समीप जान ले तब अनुयोगाचार्य अथवा गुणप्रधान शिष्य को गणानुज्ञा-पद प्रदान करते हैं।
पूर्व परम्परा से मूलगुरु के द्वारा भी इस पद पर नियुक्ति की जाती है और योग्य शिष्य स्व-इच्छा से भी यह पद स्वीकृत करता है। जब मूलगुरु प्रदान करते हैं तब किसी स्थविर की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है, किन्तु स्वेच्छा से अंगीकार करने पर स्थविर की अनुज्ञा प्राप्त करना अत्यावश्यक है वरना प्रायश्चित्त आता है।