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________________ गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप...99 संसार के पार जाकर सर्व दुःखों से मुक्त हो जाती हैं। जो पुरुष संसार पीड़ित जीवों का रक्षण करने में समर्थ है वह ज्ञान आदि श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त कर संसार से भयभीत बने हुए जीवों की रक्षा करता है, वह धन्य है । आप भावरोग से पीड़ित लोगों के लिए श्रेष्ठ भाव वैद्य हैं। ये साधुगण भव दुःख से पीड़ित होकर तुम्हारी शरण में आए हैं अत: तुम प्रयत्नपूर्वक इन्हें भवरोगों से मुक्त करना। गच्छ के अन्य मुनियों को हितशिक्षा दान - फिर मूलगुरु निश्रावर्ती अन्य मुनियों को हित शिक्षा देते हुए कहते हैं 38 . तुम सब संसार रूपी भयंकर अटवी में सिद्धपुर के सार्थवाह रूप गुरु का क्षणभर के लिए भी त्याग मत करना। इनके ज्ञानराशि से युक्त वचनों के प्रतिकूल आचरण मत करना। तभी तुम्हारा यह गृहत्याग सफल होगा। जो इस लोक में आचार्य की आज्ञाभंग करता है, उसके इहलोक और परलोक दोनों निश्चित रूप से विफल होते हैं। जिस प्रकार कुलवधू के द्वारा अत्यन्त सावधानीपूर्वक किये गये कार्य की भर्त्सना या निन्दा होने पर भी वह गृहत्याग नहीं करती है उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा किये गये कार्य की निर्भर्त्सना होने पर भी कुलवधू की भाँति यावज्जीवन गुरु चरणों का परित्याग मत करना । गुरुकुल में वास करने वाला साधु वाचना आदि के द्वारा विशिष्ट श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है, स्व- सिद्धान्त, पर-सिद्धान्त का स्वरूप समझ लेने से श्रद्धा में अतिशय स्थिर बनता है और बार-बार सारणा, वारणा, चोयणा आदि में अभ्यस्त होने से चारित्र में भी स्थिर होता है। इसलिए जो मुनि यावज्जीवन गुरुकुलवास परित्यक्त नहीं करते हैं, वे धन्य हैं। तत्पश्चात मूलगुरु नूतन गच्छनायक को वस्त्र, पात्र, शिष्य आदि के गवेषणा की अनुज्ञा दें। उनसे कहें कि अब तक वस्त्र, पात्र, शिष्यादि की लब्धि गुरु के अधीन थी अर्थात गुरु द्वारा परीक्षित वस्त्र आदि ही तुम्हें दिया जाता था, आज से तुम स्वयं के लिए एवं गण ( समुदाय) के लिए भी वस्त्र - पात्रादि की गवेषणा कर सकते हो। उसके बाद नूतन आचार्य शिष्य समुदाय सहित मूल आचार्य की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें द्वादशावर्त्त वन्दन करें। फिर प्रवेदन विधि करें। प्रवेदन के
SR No.006244
Book TitlePadarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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