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गणावच्छेदक पदस्थापना विधि का प्राचीन स्वरूप...75
• व्यवहारभाष्य में गणावच्छेदक को गीतार्थ की संज्ञा दी गयी है।
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भिक्षुआगमकोश के अनुसार जो किसी तरह का संघीय कार्य उत्पन्न होने पर 'यह कार्य मैं करूँगा' इस प्रकार आचार्य से अनुमति प्राप्त कर उस कार्य को शीघ्रता से सम्पादित करता है, क्षेत्र निरीक्षण, उपधि संग्रहण आदि कार्यों में जो खेद नहीं करता तथा सूत्र - अर्थ - तदुभय का ज्ञाता होता है वह गीतार्थ कहलाता है और ऐसा गीतार्थ मुनि ही गणावच्छेदक होता है। 3
सार रूप में कहें तो संघीय कृत्यों को त्वरा से सम्पन्न करने वाला एवं संयमी साधकों के लिए उपधि आदि उपकरणों का यथोचित सम्पादन करने वाला गणावच्छेदक कहलाता है। गणावच्छेदक पदग्राही के लिए आवश्यक योग्यताएँ
गणावच्छेदक पद पर नियुक्त करने हेतु शिष्य में कौनसी योग्यताएँ अपेक्षित हैं? किन गुणों से युक्त शिष्य को इस पद पर स्थापित किया जा सकता है ? इस विषय में अनुशीलन किया जाए तो एक मात्र व्यवहारसूत्र में इसका समाधान प्राप्त होता है। व्यवहारसूत्र में प्रस्तुत पद के लिए उपयुक्त योग्यताओं के साथ-साथ दीक्षा पर्याय का भी सूचन किया गया है।
आचार्य भद्रबाहु के अनुसार जो शिष्य आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला हो, आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह आदि में कुशल हो, चारित्राचार का अक्षत, अभिन्न, अशबल एवं असंकलिष्ट रूप से पालन करने वाला हो, बहुश्रुत एवं बहुआगमज्ञ हो, कम से कम स्थानांग - समवायांग सूत्र को अर्थ सहित कण्ठस्थ किया हुआ हो, वह गणावच्छेदक पद के योग्य होता है । यदि आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला मुनि आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में सक्षम न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट आचार वाला हो, अल्पश्रुत और अल्प आगमज्ञ हो तो वह गणावच्छेदक पद के अयोग्य होता है, अयोग्य को इस पद पर आरूढ़ करना जिनाज्ञा विरूद्ध है। 4
आशय यह है कि गणावच्छेदक पदारूढ़ शिष्य न्यूनतम आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय से युक्त तो होना ही चाहिए किन्तु साथ में आचारकुशलता आदि निर्दिष्ट गुणों से भी सम्पन्न होना चाहिए। यदि ये गुण विद्यमान न हों और आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय से पूर्ण हो तब भी उसे यह पद नहीं देना चाहिए क्योंकि दीक्षा पर्याय के साथ-साथ आचार कुशलता आदि गुणों की भी प्रधानता रही हुई है।