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60... पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
जाता है। डॉ. सागरमल जैन के निर्देशानुसार स्थानक संघ में प्रवर्त्तक पदस्थापना की अति संक्षिप्त विधि होती है। मुख्यतया चतुर्विध संघ की अनुमति से नूतन प्रवर्त्तक को चद्दर ओढ़ायी जाती है। इससे पूर्व उस संघ के अधीनस्थ साध्वीवर्ग द्वारा चद्दर का स्पर्श कर ओढ़ाने की भावाभिव्यक्ति की जाती है फिर गुरु सहित सभी मुनिगण मिलकर उन्हें चद्दर ओढ़ाते हैं। गुरु या ज्येष्ठ मुनि 'अमुक मुनि को प्रवर्त्तक पद पर स्थापित किया जा रहा है' ऐसी उद्घोषणा करते हैं।
यदि समीक्षात्मक दृष्टिकोण से कहा जाए तो तपागच्छ परम्परा में प्रवर्तित पंन्यासपद को प्रवर्त्तकपद के समकक्ष या उसका प्रतीरूप मान सकते हैं। प्राच्यविद्या के मर्मज्ञ डॉ. सागरमलजी जैन द्वारा भी यही अनुमानित किया गया है कि पंन्यासपद प्रवर्त्तकपद का परिवर्तित रूप है। इस अवधारणा को इस कथन से भी सत्य प्रमाणित कर सकते हैं कि विक्रम की 16वीं-17वीं शती तक उपलब्ध ग्रन्थों में लगभग पंन्यास विधि का उल्लेख नहीं मिलता है, अतः पन्यासपद प्रवर्त्तकपद का दूसरा रूप हो, यह सम्भव है।
वैदिक एवं बौद्ध-परम्परा में इस तरह के कोई संकेत या उल्लेख जानने को नहीं मिले हैं अस्तु, प्रवर्त्तक पद का अभाव है।
उपसंहार
शासनाधीश श्रमण भगवान महावीर की आदर्शमूलक परम्परा में प्रवर्त्तक का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इस पद के माध्यम से आचार्य द्वारा निर्वहन करने योग्य उत्तरदायित्वों का सम्यक् संचालन होता है। कारण कि प्रवर्त्तक उनके द्वारा करणीय कार्यों में विशेष सहयोगी होते हैं।
प्रवर्त्तक द्वारा श्रमण संघ की प्रत्येक गतिविधि का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। इस पद के माध्यम से साधु-साध्वी संघ को चारित्रनिष्ठ, तपोनिष्ठ एवं सामाचारीनिष्ठ बनाने का प्रयत्न किया जाता है इससे इस पद की सार्वकालिक उपादेयता सिद्ध होती है।
प्रवर्त्तक की अपनी विशिष्टता होती है कि वह संघस्थ मुनियों की योग्यता और रूचि के अनुसार उन्हें तथाविध क्रियानुष्ठान में संलग्न कर देता है।
यह सत्य है कि गच्छ-समुदाय में जितने साधु-साध्वी होते हैं वे सभी