________________
प्रवर्तक पदस्थापना विधि का मार्मिक स्वरूप...61 साधना-मार्ग पर आरूढ़ तो होते हैं, किन्तु प्रत्येक की रूचि एवं योग्यता भिन्न-भिन्न होती है। कोई मुनि ध्यान साधना का इच्छुक होता है तो कोई ज्ञान-साधना में मग्न रहना चाहता है। किसी की रूचि सेवा कार्य में रहती है तो किसी का उत्साह तपोनुष्ठान में रहता है इस प्रकार जो मुनि जिस सद्गुष्ठान के प्रति रूचिवन्त, उद्यमवन्त एवं उपयोगवन्त हैं उन्हें उस कार्य के लिए उत्प्रेरित करते हुए गुरुतर दायित्व का सफल नियोजन करते हैं।
व्यवहारभाष्य में आचार्य, उपाध्याय आदि पदवीधरों के तुल्य इसे महत्त्व दिया गया है। भाष्यकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जिस गच्छ में आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, प्रवर्तक और स्थविर इन पाँचों में से कोई एक नहीं हो, उस गच्छ में नहीं रहना चाहिए। इनके न होने से पाँच दोष उत्पन्न होते हैं 1. अशुभ - मृतक की परिष्ठापन-विधि आदि में कठिनाई होती है। 2. सेवा अभाव - ग्लान आदि मुनियों की सेवा-व्यवस्था का अभाव हो जाता है। 3. परिज्ञा - अनशनधारी की समाधि में बाधा होती है। 4. कुल-संघ, गण आदि के आवश्यक कार्यों में विक्षेप होता है। 5. आलोचना - प्रायश्चित्त के अभाव में सशल्यमरण से चारित्र हानि होती हैं।15
समाहारत: प्रवर्तक गच्छबद्ध एवं शक्ति सम्पन्न मुनियों को यथाविध क्रिया कलापों से संयुक्त करता है तथा जो साधक न्यून क्षमतावान हैं और उन्हें किसी कार्य को करने में बाधा उपस्थित हो रही हो तो उसे उस कार्य से निवृत्त कर उसकी सामर्थ्यतानुसार अनुकूल कार्य में नियुक्त करता है। सन्दर्भ-सूची 1. आयरिए वा उवज्झाए वा, पवित्ती वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा, गणावच्छेइए वा ......।
(क) आचारचूला, 1/130 की टीका ज्ञानादीनामविराधनां कुर्वन यो गच्छं परिवर्धयति स गणधरः।
(ख) व्यवहारभाष्य, 1375 की टीका 2. बृहत हिन्दी-कोश, पृ. 859 3. पाइयसद्दमहण्णवो, पृ. 574.