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भिक्षाचर्या की उपयोगिता एवं उसके रहस्य ... 27
भिक्षाचर्या के लिए अभिग्रह धारण करना आवश्यक क्यों ? जैनाचार्यों ने युक्ति पूर्वक इस तथ्य पर बल देते हुए कहा है कि मुनि अभिग्रह धारण करके भिक्षार्थ गमन करें।
अभिग्रह का अर्थ है किसी कार्य का निश्चय, प्रतिज्ञा या नियम आदि का संकल्प करना। अभिग्रह करने से पूर्व साधक स्वयं को असमर्थ समझता है, परन्तु अभिग्रह के पश्चात मनोबल बढ़ने के कारण उसका सामर्थ्य जाग उठता है। इससे आत्मिक बल एवं आन्तरिक उत्साह में वृद्धि होती है। अभिग्रह निश्चय रूप है और निश्चय की शक्ति अचिन्त्य होती है। भारतीय मनीषियों ने किसी भी कार्य की सिद्धि हेतु प्रणिधान (निश्चय) को प्राथमिकता दी है क्योंकि संकल्प शक्ति के जागृत होते ही उसका विरोधी बल कमजोर हो जाता है और सहायक तत्व प्रकट हो जाते हैं। अभिग्रह युक्त भिक्षाचर्या से आहार संज्ञा एवं रसासक्ति पर विजय प्राप्त होती है।
उपाश्रय में प्रवेश करने से पूर्व पाँव प्रमार्जना क्यों?
मुनि धर्म की आचार मर्यादा के अनुसार जब भी कोई मुनि गोचरी या स्थंडिल के लिए वसति से बाहर जाकर पुनः वसति में प्रवेश करते हैं तो उस समय गाँव, जंगल आदि की सचित्त रज एवं उपाश्रय आदि की अचित्त रज का सम्मिश्रण न हो, एतदर्थ पाँवों की प्रमार्जना करते हैं क्योंकि सचित्त और अचित्त रज के मिश्रण से पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा होती है।
मुनि शुद्ध और सात्विक आहार ही ग्रहण क्यों करें?
मुनि भिक्षाटन करते समय शुद्ध एवं सात्विक आहार की गवेषणा करते हैं। यदि वर्तमान संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता एवं उपयुज्यता पर चिंतन किया जाए तो शुद्ध और सात्विक आहार ग्रहण करने से परिणामों की शुद्धता बनी रहती है। शारीरिक स्वस्थता एवं मानसिक स्थिरता आदि भी सात्विक आहार से ही संभव है। वर्तमान में अधिकतम रोगों का कारण आहार से सम्बन्धित हैं । फिर चाहे वह आहार की अनियमितता हो, उसकी गरिष्ठता हो अथवा उसकी तामसिकता या स्वाद प्रमुखता हो, आधुनिक जीवन प्रणाली में निरोगी जीवन जीने के लिए शुद्ध एवं सात्त्विक आहार अत्यावश्यक हो गया है।
आज बढ़ते आतंकवाद, भावनात्मक उग्रता, पारिवारिक क्लेश, साम्प्रदायिक वैमनस्य, सामाजिक तनाव एवं अपराध वृत्ति का एक मुख्य कारण